ध्यान का मानव जीवन में इतना महत्व क्यों माना गया है?
सभी तरह का आराम, सभी तरह की सुविधायें होते हुए भी लोग खालीपन क्यों महसूस करते हैं, क्यों असंतुष्ट रहते हैं? यहाँ सद्गुरु समझा रहे हैं कि मनुष्य होने का महत्व अपनी सीमाओं से परे जाने में है, और यही बात ध्यान को मनुष्य के जीवन में महत्वपूर्ण बनाती है।
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ध्यान का अर्थ क्या है?
सद्गुरु: ध्यान का अर्थ है भौतिक शरीर और मन की सीमाओं के परे जाना। जब आप शरीर और मन की सीमित समझ के परे जाते हैं, सिर्फ तभी आप जीवन के पूरे आयाम को अपने अंदर पा सकते हैं।जब आप अपनी पहचान एक शरीर के रूप में करते हैं, तो जीवन के बारे में आपकी सारी समझ सिर्फ जीवित रहने भर के बारे में होगी। अगर आप अपनी पहचान अपने मन के रूप में करते हैं तो आपकी सारी समझ सिर्फ पारिवारिक, सामाजिक और धार्मिक दृष्टिकोण की गुलाम ही होगी। आप इन सब के परे देख ही नहीं सकते। केवल जब आप अपने ही मन के फेर से मुक्त होंगे, तब ही आप परे के आयाम को जान पायेंगे।
यह शरीर और यह मन आपके नहीं हैं। ये कुछ ऐसी चीजें हैं जो आपने कुछ समय में इकट्ठा की हैं। आप का शरीर आप के खाये हुए भोजन का एक ढेर मात्र है। आपका मन केवल आपके द्वारा बाहर से इकट्ठा किये हुए प्रभावों का एक ढेर है।
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आपने जो इकट्ठा किया है वो आपकी संपत्ति है। जैसे कि आपका घर है, बैंक में जमा रकम है, वैसे ही आपके पास शरीर और मन है। बैंक में अच्छी रकम, एक अच्छा शरीर और एक अच्छा मन एक अच्छा जीवन जीने के लिये जरूरी हैं , पर पर्याप्त नहीं हैं। कोई भी मनुष्य इन चीजों से कभी भी संतुष्ट नहीं रहेगा। ये जीवन को सिर्फ आरामदायक बनायेंगे। पहले की किसी भी पीढ़ी ने इस तरह के आराम की, इस तरह की सुविधाओं की कल्पना भी नहीं की थी, जो हमारे पास हैं। फिर भी हम ये नहीं कह सकते कि इस धरती पर हम सबसे ज्यादा आनंदित और सबसे ज्यादा प्रेमपूर्ण पीढ़ी हैं।
ध्यान : शरीर और मन के परे जाने का एक वैज्ञानिक साधन
आपके जीवित रहने के लिये, आपके पास शरीर और मन, ये जो दो साधन हैं, वे ठीक हैं पर वे आपको पूर्णता नहीं देंगे। उनसे आपको संतोष नहीं मिलेगा क्योंकि मनुष्य का गुण ही है जितना है उससे ज्यादा चाहना। अगर आप नहीं जानते कि आप कौन हैं, तो क्या आप ये जानने के काबिल हैं कि ये दुनिया क्या है? आप जो हैं, उसके सही गुणों का अनुभव करने के लिये आपको अपने शरीर और मन के परे जाना होगा। योग और ध्यान, इसके लिये वैज्ञानिक साधन हैं।
प्रश्न : पर सद्गुरु, क्या कोई व्यक्ति इस असीमित आयाम में यज्ञ और कर्मकांड कर के नहीं पहुँच सकता? क्या केवल ध्यान ही एकमात्र रास्ता है?
सद्गुरु: ईशा में हमने ध्यान की प्रक्रियाओं को ही चुना है और कर्मकांड की प्रक्रियाओं को एकदम कम रखा है, क्योंकि ध्यान एक विशेष प्रक्रिया है। आधुनिक समाज की बड़ी कठिनाई मूल रूप से विशेष होने में, अलग-थलग होने में है। जैसे-जैसे ज्यादा लोग आधुनिक शिक्षण ले रहे हैं, वे ज्यादा से ज्यादा विशेष, अलग-थलग होते जा रहे हैं। वे अब ऐसे होते जा रहे हैं कि दो लोग एक मकान में एक साथ नहीं रह सकते। दक्षिणी भारत में आज भी ऐसे परिवार हैं, जिनमें 400 से ज्यादा लोग एक घर में रहते हैं - बहुत बड़ा घर जिसमें चाचा, मामा, मौसा, चाचियाँ, मामियाँ, मौसियाँ, दादा, नाना, दादियाँ, नानियाँ, वगैरह सभी एक साथ रहते हैं।
एक व्यक्ति इस घर का मुखिया होता है और हर किसी को कोई न कोई काम मिला हुआ होता है। कम से कम 70 -80 बच्चे घर में होते हैं और जब तक वे बड़े नहीं हो जाते, शायद उन्हें पता भी नहीं चलता कि उनके माता - पिता कौन है क्योंकि 8 से 10 औरतें उन्हें संभालती रहती हैं। 12 - 13 साल के होने तक वे अपने माता -पिता को सही ढंग से पहचान भी नहीं पाते और जानते भी हों तो भी सही ढंग से उनके साथ जुड़ नहीं पाते, जब तक वे स्कूल न जानें लगें और अपने मन में स्वयं के विचार न बनाने लगें।
पर, जैसे-जैसे आधुनिक शिक्षण का प्रसार हुआ है, अब इतने लोगों का एक साथ रहना असंभव हो गया है। अब तो दो लोग भी एक दूसरे के साथ रह नहीं पाते। ये बहुत तेजी से हो रहा है। आधुनिक शिक्षण इस अलगाव पर ही जोर देता है, जब कि सारा अस्तित्व एक समावेशी प्रक्रिया है।
ध्यान : अलगाव से समावेश की ओर
एक प्रक्रिया के रूप में ध्यान अलगाव है, जो बाद में समावेशिता की ओर ले जाता है। क्योंकि, जब आप इसे शुरू करते हैं तो अपनी आँखें बंद कर के बैठ जाते हैं। वे लोग जो आध्यात्मिक प्रक्रिया के शुरुआती दौर में हैं, वे हमेशा ही बहुत ज्यादा अलग हो कर रहते हैं - वे किसी के साथ मिल-जुल नहीं पाते। मुझे लगता है कि ये एक डर लोगों में होता है, "अगर मैं आध्यात्मिक रास्ते पर जाता हूँ तो शायद मैं समाज के साथ मिल-जुल नहीं पाऊँगा", क्योंकि मूल रूप से ये अलग करता है।
हमने उसी मार्ग को चुना है क्योंकि आज के समाज में समावेशी प्रक्रियायें संभव नहीं हैं। अगर आप कोई कर्मकांड करना चाहते हैं तो उसमें हर किसी को इस तरह भाग लेना होता है जैसे वे सब एक ही हों। किसी कर्मकांड में भाग लेने के लिये एकत्व की गहरी भावना होनी चाहिये। कर्मकांड का एक और पहलू ये भी है कि यह पक्का करना कि कर्मकांड का कोई दुरुपयोग नहीं होगा। जब तक ऐसे लोग न हों जो यह सब अपने स्वयं के अस्तित्व से ऊपर उठ के करें, तब तक कर्मकांड का आसानी से दुरुपयोग हो सकता है। ध्यान की प्रक्रिया का दुरुपयोग नहीं हो सकता क्योंकि ये व्यक्तिगत है और व्यक्तिपरक है।
अगर परिस्थिति ऐसी है जहाँ 'मैं बनाम आप' या 'मैं विरुद्ध आप' चल रहा है तो हम कर्मकांड नहीं कर सकते। कर्मकांड खराब हो जायेगा। अगर पूरी तरह से समावेशी वातावरण हो तो कर्मकांड बहुत अच्छा होगा, पर आज की दुनिया में वैसा समावेशी वातावरण बना सकना बहुत मुश्किल है, और बहुत कम समुदाय ही ये कर सके हैं। बाकी सब बहुत अलगाववादी हो गये हैं। इस संदर्भ में ध्यान बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है।
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