खेती से हो सकती है एक आर्थिक क्रांति
आजकल भारत में कृषि जिस तरह से हो रही है, उसकी समीक्षा करते हुए यहाँ सदगुरु समझा रहे हैं कि खेतीबाड़ी में तेजी लाने के लिये हमें क्या करना चाहिये जिससे हम देश की आर्थिक व्यवस्था को अगले स्तर पर ले जा सकें
हमारे देश की सबसे बड़ी उपलब्धि
हमारे देश ने बहुत सी उल्लेखनीय वैज्ञानिक सफलतायें हासिल की हैं और साथ ही कई बड़े उद्यम लगाने में भी हम सफल रहे हैं जो हम सब के लिये गर्व का विषय है। हमारे वैज्ञानिकों ने भारत के मंगलयान को मंगल ग्रह की कक्षा में भेजा है। उद्योग व्यापार में बहुत से बड़े उद्यम हमने देश में स्थापित किये हैं। लेकिन इस सब के बीच हमारी सबसे महान उपलब्धि ये है कि बिना किसी विशेष तकनीक और बुनियादी ढाँचे के, हमारे किसान आज भी 130 करोड़ लोगों को बस अपने पारंपरिक ज्ञान के सहारे खाना खिला रहे हैं। दुर्भाग्यवश हमें हमारा भोजन प्राप्त कराने वाले किसान के बच्चे भूखे हैं और वो खुद अपनी जान ले लेना चाहता है। पिछले 10 वर्षों में 3 लाख से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है। इतने लोग तो उन चार युद्धों में भी नहीं मरे जो भारत ने लड़े हैं। यह सोच कर मेरा सिर शर्म से झुक जाता है।
किसानों को डुबाने वाले दो मुख्य कारण
हमारे देश को प्रकृति का ऐसा वरदान प्राप्त है कि वो सारी दुनिया का अन्नदाता बन सकता है क्योंकि हमारे देश में लैटीट्यूड से जुड़ा या अक्षांश-संबंधी फैलाव मौजूद है जिसमें ऋतुओं की विविधता, अच्छी मिट्टी, जलवायु की उचित स्थिति शामिल है। सबसे बढ़कर, हमें ऐसे लोगों की विशाल संख्या प्राप्त है जो मिट्टी को भोजन में बदलने का जादू जानते हैं। हम अकेले देश हैं, जिसे ऐसे वरदान प्राप्त हैं। लेकिन अगर हम इस व्यावसायिक क्षेत्र को बहुत बड़ी आमदनी देने वाला क्षेत्र नहीं बनाते हैं, तो अगली पीढ़ी के कृषि को अपनाने की उम्मीदें बहुत कम हैं। सिर्फ इसी से आबादी ग्रामीण भारत में रुकी रहेगी। अगर खेती से होने वाली आमदनी को हम कुछ गुना नहीं बढ़ाते, तो ग्रामीण भारत का आधुनिकरण एक सपना ही रह जाएगा।
लेकिन कृषि को बड़े रूप में फायदा देने वाले एक उद्यम की तरह बनाने में हम सफल नहीं हो रहे क्योंकि सबसे बड़ी बाधा उनकी ज़मीनों का बहुत छोटा होना है -- लोगों की जमीनें बहुत छोटी हैं। हज़ारों सालों से इन ज़मीनों पर खेती हो रही है और ज़मीनों का बंटवारा होता गया है। भारत के किसानों के पास औसतन प्रति किसान बस 1 हेक्टेयर से कुछ ही ज्यादा ज़मीन है। तो इतनी छोटी ज़मीन में किसान जो भी धन लगाता है वो डूब ही जाता है। हमारे किसानों को नुकसान पहुंचाने वाले दो मुख्य कारण, जो उन्हें गरीबी और मौत की ओर धकेल रहे हैं - वे हैं सिंचाई साधनों में होने वाला बड़ा खर्च और बाज़ार में मोलभाव करने की ताकत न होना। ज़मीनों का स्तर छोटा होने के कारण ये दो बातें हमारे किसानों की पहुँच के बाहर हैं।
भारत पूरी दुनिया के लिए अन्न पैदा कर सकता है
तो हमारा प्रयत्न यह है कि किसी तरह से हम ये बदलाव लायें और उसके लिये उन सब को 'किसान उत्पादक संघ' (फार्मर-प्रोड्यूसर आर्गेनाईजेशन, एफपीओ) में ला कर कम से कम 10,000 एकड़ जमीन को इकठ्ठा करें। हम इस तरह के कानूनी ढाँचे बनाने का काम कर हैं कि किसानों की ज़मीन उनके ही नियंत्रण में रहे तथा उनका मालिकाना हक बना रहे, और उनके लिये सभी कुछ 100 % सुरक्षित रहे। किसान अपनी ज़मीनों पर व्यक्तिगत रूप से खेती करेंगे लेकिन सूक्ष्म स्तर पर सिंचाई व्यवस्था तथा फसलों को बाजार में बेचने की प्रक्रिया – ये दोनों ही उन कंपनियों के माध्यम से हो जिनके पास ज़रूरी योग्यता है।
वरना, अभी जिस तरह से ये काम हो रहा है, आप देख सकते हैं कि हर किसान के पास उसका स्वयं का पंप सेट है, बोरवेल है और बिजली व्यवस्था है। इस पर इतना ज्यादा खर्च होता है कि उन्हें ऋण लेना ही पड़ता है और आखिर में किसान को या तो अपनी ज़मीन बेचनी पड़ती है या गाँव से भाग जाना पड़ता है या फिर किसी पेड़ से फंदा लगा कर लटकना पड़ता है। और इस सब के बाद जब उसे अपनी फसल बेचनी होती है तो उसके पास वाहन नहीं है, भंडारण व्यवस्था नहीं है और एक अच्छा बाज़ार भी नहीं है। फसल उगाना एक बात है लेकिन जब उसे ले कर बाजार जाना पड़ता है, तो एक सर्कस जैसी बड़ी कसरत हो जाती है।
Subscribe
तो अगर निजी क्षेत्र की कम्पनियाँ, किसानों के समूहों के लिये सामुदायिक सूक्ष्म सिंचाई व्यवास्था बनायें तथा किराये पर किसानों को पानी दें तो किसानों को बड़ी रकम के पूंजीगत खर्च से मुक्ति मिल सकती है। हाँ, सरकार को एक समुचित क़ानूनी प्रक्रिया बनानी होगी जिससे इन कंपनियों में निवेश करने वाले भी सुरक्षित रहें और एक सही ढंग से काम करने वाली भुगतान प्रक्रिया द्वारा उन्हें अपनी आय प्राप्त होती रहे। और ये कम्पनियाँ अगर 10,000 किसानों की फसलों को इकट्ठी कर के एफपीओ में लायें तो वे मोलभाव कर के किसानों को अच्छी आय दिला सकते हैं। लाभ किसानों और कंपनियों, दोनों को ही होगा। अगर हम अपने किसानों के लिये ऐसी सहायक व्यवस्था बना सकें जिससे उन्हें अन्न उगाने के अतिरिक्त और किसी बात की चिंता न करनी पड़े तो भारत सारी दुनिया को अन्न खिला सकता है।
मिट्टी को पुनर्जीवित करने के लिए जैविक खाद जरुरी है
हमारे किसानों के पास अन्न पैदा करने के बारे में बहुत ज्ञान है। क्योंकि वे निरक्षर दिखते हैं, हमें लगता है कि इसमें (खेती में) कुछ नहीं है लेकिन यह सब काफी जटिल है और एकदम सही ढंग से करना पड़ता है। हमारे किसानों के पास ये योग्यता है क्योंकि यह ज्ञान एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को दिया जाता रहा है।
दुर्भाग्यवश, यद्यपि दक्षिण भारत में 12000 वर्षों से संगठित खेतीबाड़ी का इतिहास है, आज एक ही पीढ़ी में, बहुत सारी ज़मीन खेती के अयोग्य होती जा रही है। इसका कारण है वे रसायन जो हम ज़मीनों में दाल रहे हैं। अगर हमारे किसानों को अच्छी फसलें उगानी हैं और कृषि में से अच्छी आय प्राप्त करनी है तो मिट्टी में रासायनिक खाद डालने की ज़रूरत नहीं है, उसमें जैविक वस्तुएं जानी चाहिएं। मिट्टी तभी स्वस्थ्य होगी, अच्छी होगी जब उस पर पेड़ और पशु हों जिससे पेड़ों की पत्तियां और पशुओं का मल मिट्टी में जाये।
हमने भारत में छोटे स्तर पर जैविक, पेड़ों पर आधारित खेती का प्रदर्शन किया है। इससे किसानों की आय में तीन से आठ गुना वृद्धि देखी गयी है क्योंकि उनके खेती संबंधी खर्चे बहुत ही कम हो जाते हैं तथा सारे जगत में इस समय जैविक उत्पादों -- फल, सब्जी आदि की बहुत मांग है। वियतनाम जैसे देशों ने ये रूपांतरण बहुत बड़े स्तर पर किया है और हमने जिन वियतनामी विशेषज्ञों से बातचीत की, उन्होंने बताया कि किसानों की आय 20 गुना तक बढ़ी है।
अगर इसमें मूल्य को बढ़ाने वाले उत्पादों जैसे दूध, मछली तथा हस्त कला उत्पादों से होने वाली आय भी जुड़ जाए, तो इससे ग्रामीण भारत को जबरदस्त सफलता मिल सकती है। कंपनियों को इस लाभ के अवसर को उपयोग में लेना चाहिये तथा इसमें अपना सहयोग दे कर लाभ कमाना चाहिये। कई तरीकों से देश की संपूर्ण अर्थ व्यवस्था पेड़ों पर आधारित उत्पादों के बल पर कार्य कर सकती है। उदाहरण के लिये सिर्फ लकड़ी, फल तथा टूरिज़्म आजकल वैश्विक बाजार में करोड़ों डॉलर का कारोबार करते हैं।
कॉर्पोरेट क्षेत्र की जिम्मेदारी और विशेषाधिकार
एक और बड़ा काम जो कम्पनियाँ कर सकती हैं, वह है कचरे का संपत्ति में रूपांतरण। आजकल हमारे शहरों और महानगरों का अधिकतर मैला पानी समुद्रों और नदियों में जा रहा है। यह न केवल बहुत बड़ा प्रदूषण खतरा है पर एक बहुत बड़ा आर्थिक नुकसान भी है क्योंकि आजकल ऐसी कई तकनीकें उपलब्ध हैं जो मैले, कचरे को धन संपत्ति में बदल सकती है। सिंगापुर ने यह कर के दिखाया है। उन्होंने मैले पानी को पीने योग्य पानी में बदल दिया है। हम अगर भारत के शहरों और महानगरों का 360 करोड़ लीटर मैला पानी खेती की ज़मीन की सिंचाई के लिये प्रयोग कर सकें तो 60 से 90 लाख हेक्टेयर ज़मीन की सिंचाई हो सकती है।
इन सब बातों में सरकार प्रभावी ढंग से धन नहीं लगा सकती। सरकारी वित्त की प्रक्रियायें ऐसी होती हैं कि सुनिश्चित नहीं किया जा सकता कि हर बार ठीक समय पर ये मिल ही जायेगा। विशेष रूप से जब वृक्ष आधारित कृषि की बात होती है, जहां पर एकदम सही समय पर वृक्षारोपण ज़रूरी है, वहां कॉर्पोरेट क्षेत्र यह काम बेहतर कर सकता है और किसानों को समय पर सहायता देने में तेज़ी दिखा सकता है। अगर कॉर्पोरेट्स बड़े स्तर के प्रदर्शन में निवेश करें, जैसे 25,000 किसान और 1 लाख हेक्टेयर ज़मीन जिन्हें संगठित सूक्ष्म सिंचाई तथा मार्केटिंग प्रकल्पों में लगाया जाये तो लोग देख सकेंगे कि कैसे ये एक बड़ी आर्थिक सफलता बन जाती है, तो फिर इसे रोकने का कोई तरीका नहीं होगा। सारे देश में ये व्यवस्था फ़ैल जायेगी। जब हम अर्थ व्यवस्था की बात करते हैं तो सिर्फ शेयर बाजार तथा कुछ अन्य चीज़ें ही देखते हैं। पर हमारी 65% जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में है। अगर हम उनकी आय सिर्फ दो गुनी भी कर सकें तो हमारी अर्थ व्यवस्था छप्पर फाड़ कर ऊपर जायेगी।
आज भारत समृद्धि के कगार पर है। अगर हम अगले 10 वर्षों तक सही काम करें तो अपने देश के लोगों के इतने बड़े समुदाय को जीवन जीने के एक स्तर से दूसरे बड़े स्तर पर ले जा सकते हैं। कॉर्पोरेट क्षेत्र के पास यह जिम्मेदारी भी है और विशेषाधिकार भी कि वे अपने विशेष ज्ञान और योग्यता का सही उपयोग कर के इस पुनर्निर्माण की प्रक्रिया को शुरू करें और गति दें। ये कोई दानधर्म नहीं है, ये एक निवेश है जिसमें आर्थिक लाभी तो होगा ही, साथ ही करोड़ों लोगों को एक स्वाभिमानी तथा समृद्ध जीवन जीने का अवसर देने के सुखद अनुभव का भी बहुत अच्छा लाभ होगा।