यहाँ, सद्‌गुरु जीवन के उतार-चढ़ावों के बारे में एक प्रश्न का उत्तर देते हुए इस बात का महत्व बता रहे हैं, कि आपको अपने अंदर परमानंद की एक स्थिर अवस्था बनानी चाहिये ताकि आप अपना जीवन अच्छी तरह से गुज़ार सकें।

प्रश्नकर्ता : सद्‌गुरु, कुछ दिन ऐसे होते हैं जब मैं बहुत ज्यादा खुश रहता हूँ और कुछ दिन ऐसे, जब मैं बिना किसी कारण के दुखी रहता हूँ! तो इन उतार-चढ़ावों से कैसे निपटना चाहिये?

सद्‌गुरु: दक्षिण भारत में ऐसा होता है कि अगर कोई बहुत ज्यादा हँस रहा हो और बहुत खुश हो तो लोग कहते हैं, "बहुत मत हँसो, इसके बाद दुख आयेगा"। कुछ लोगों की दुर्भाग्य से ऐसी समझ हो गयी है, क्योंकि उनका जीवन कुछ ऐसा ही रहा है। अगर आज उन्हें बहुत ज्यादा खुशी हो रही है, तो कल उनको कोई जबर्दस्त दुख सतायेगा। इसका कारण यही है कि लोग खुद अपने आपको ऐसा बना लेते हैं। अपने मन में वे अपने सुख और दुख, दोनों को ही बहुत ज्यादा बढ़ा लेते हैं। आप ये पूछ सकते हैं, "अगर हम ऐसा न करें तो जीवन की सुंदरता ही कहाँ रह जायेगी"? पर, जीवन ऐसे ही अपने आप में सुंदर है। आपको उस पर कोई मेकअप चढ़ाने की ज़रूरत नहीं है।

चूंकि आप जीवन पर, उसके मूल रूप में ध्यान नहीं देते और आप अपनी मनोवैज्ञानिक वास्तविकताओं में खोये रहते हैं। आप कौन हैं, इसके मनोवैज्ञानिक और शारीरिक पहलू, एक के बाद एक, चक्रों में आते रहते हैं। आज आप बहुत ज्यादा आनंदमय और अपनी खुशी की ऊंचाई पर हो सकते हैं, और कल एकदम नीचे गिर सकते हैं। अधिकतर मनुष्य इस तरह की मनोवैज्ञानिक रोलर कोस्टर में से गुज़रते रहते हैं। आप हर बार कुछ बाहरी प्रभाव का बहाना बनायेंगे, पर अगर हम आपको एक कमरे में बंद कर दें और वहाँ आपको खुशी या दुख देने वाला कोई भी न हो, तो भी ये मनोवैज्ञानिक चक्र चलते रहेंगे। ऐसे ही शारीरिक चक्र भी चलते हैं और ये दोनों तरह के चक्र एक दूसरे पर प्रभाव डालते हैं, जो भी उस समय ज़्यादा ताकतवर होता है वह दूसरे पर प्रभाव डालता है।

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आपको अपना सबसे अच्छा औसत बनाना चाहिये। ये समय है बस बैठने का - चाहे आपके घुटने सूज गये हों, आपके टखने बुरी तरह दुख रहे हों - आप परमानंद की अवस्था में हों।

इन चक्रों की जानकारी लोगों के दिमाग में इतनी भर गयी है कि उन्होंने एक तरह से अपने आपको ये समझा लिया है कि कुछ भी हो, उनको दुख मिलेगा - और इसीलिये ये ज़रूर मिलेगा। अगर आप ये समझ जाएँ कि आप ही अपनी खुशी और दुख बनाते हैं, तो फिर कोई समस्या नहीं रहेगी। सबसे बड़ी गलती लोग ये करते हैं कि वे खुश होने की कोशिश करते हैं। और केवल खुश होने की ही नहीं, वे किसी और से ज्यादा खुश होने की कोशिश करते हैं। और वह एक गंभीर समस्या है। खुश होने की कोशिश मत कीजिये। जब आप अपने अनुभव से यह जान लेंगे कि आपके अंदर जो हो रहा है, वह आप ही के कारण हो रहा है, आपके सिवा किसी और के कारण नहीं, तो आप परमानंद में रह सकेंगे। आप न बहुत ऊपर उड़ेंगे, न ही नीचे गर्त में गिरेंगे - आप बस आनंद में रहेंगे। खुशियों की यह ऊँचाई अलग-अलग लोगों के लिये अलग-अलग होती है जो इस बात पर निर्भर करती है कि उनमें कितनी ऊर्जा और तीव्रता है, लेकिन यह उन्हें स्थिरता देती है। अगर आप अति उल्लास की अवस्था का मजा लेना चाहते हैं तो आप हमेशा ही ऊपर जा कर वापस आ सकते हैं । अगर आपको उदासी पसंद है तो आप नीचे जा कर ऊपर वापस आ सकते हैं।

सबसे अच्छा औसत

परमानंद की औसत अवस्था का, बीच की अवस्था का अनुभव ही सबसे अच्छा अनुभव है। वह “मध्य मार्ग” है, जिसके बारे में बुद्ध और दूसरे आत्मज्ञानियों ने बात की है। हाँ, अलग-अलग लोगों के लिये यह अवस्था अलग-अलग हो सकती है। ये कोई निष्क्रिय, गंभीर अवस्था नहीं है, बल्कि एक जीवंत, सुखद अवस्था है - एक अच्छी सुबह की तरह। गरजती हुई तालियों की तरह नहीं, पर एक अच्छी बढ़िया स्थिति। यहीं से ‘गुड मॉर्निंग’ शब्द आया है। जब आप सुबह उठते हैं, दुनिया से कुछ समय दूर रहकर, तो अच्छा महसूस होता है। वैसे तो दोपहर भी अच्छी ही होती है, और शाम भी, पर जब आप किसी चीज़ से दूर जाते हैं तो उसकी अच्छाई नज़र आती है। ये वैसे ही है जैसे पाँच दिनों तक कांजी (तरल दलिया) खाने के बाद जब आप अपना नियमित भोजन लेते हैं तो अचानक ही आपको लगता है कि ये कितना अच्छा है। हर पल अपने आप में अच्छा ही होता है पर अगर आप कुछ देर के लिये उससे अलग हो जाते हैं, तो आपका ध्यान उस ओर जाता है। 

पर, सबसे अच्छे औसत का मतलब निष्क्रियता, कुछ न करना या किसी बात में भाग न लेना नहीं है। अगर आप चाहें तो ऊपर उड़ सकते हैं और फिर वापस ज़मीन पर आ सकते हैं, पर कुछ भी हो आप अपने आप में परमानंद की अवस्था का एक खास स्तर बनाये रखते हैं। इस परमानंद को बनाये रखने का काम आपकी यौगिक क्रिया करती है। अगर आप अपनी क्रिया सही तरीके से करते हैं तो आप उस अच्छी औसत अवस्था में आ जायेंगे और उसे बनाये रखेंगे। वहाँ से आप और ज्यादा कोशिश कर सकते हैं कि आपकी अच्छी औसत अवस्था को आप ज्यादा ऊँचे, ज्यादा प्रचुर स्तर पर ले जाएँ। आप अपने अंदर कितनी जीवंतता और ऊर्जा बनाते हैं, उस पर ये निर्भर करेगा कि आपकी औसत अवस्था ऊँचे स्तर पर होगी या निचले स्तर पर। ये चाहे किसी भी स्तर पर हो, आपके लिये ये एक सुंदर अनुभव होगा। ये बहुत ज्यादा चमकता हुआ उल्लास नहीं होगा क्योंकि आप उसे बनाये नहीं रख सकेंगे। और अगर आप ऐसा कर सके तो फिर आप दुनिया में सक्रिय नहीं रह पायेंगे। आप उल्लास, उमंग से मदमस्त हो सकते हैं पर फिर आप वो सब नहीं कर पायेंगे जो आप करना चाहते हैं।

अगर आप दुनिया में प्रभावशाली होना चाहते हैं तो आपको परमानंद की औसत अवस्था बनाये रखनी होगी - ऐसा परमानंद, जिसे हम शब्दों के अभाव में, शान्तिपूर्णता और आनंदपूर्णता का मिश्रण कह सकते हैं। मान लीजिये, आप सुबह इधर-उधर घूम रहे हैं, अपना नाश्ता बना रहे हैं, बिना जाने कुछ गुनगुना रहे हैं, बस अच्छा महसूस कर रहे हैं, तो ये परमानंद है। मदमस्ती पागलपन की हद तक पहुँचा हुआ उल्लास है जिसमें आप नहीं रह सकते अगर आप ऊर्जा के एक खास स्तर पर न पहुँच गये हों। ऐसे योगी होते हैं - जो अवधूत कहलाते हैं - वो इतने असीम आनंद की अवस्था में होते हैं कि उनको ये भी ख्याल नहीं आता कि उन्हें कुछ खाना-पीना चाहिये। वे कुछ भी करने की परवाह नहीं करते। किसी को उन्हें खिलाना पड़ता है, किसी को उन्हें टॉयलेट तक ले कर जाना पड़ता है - जैसे कि वे किसी तरह के नशे में धुत हों। पर आज के ज़माने में आप की ऐसी परवाह करने वाला कोई नहीं मिलेगा - बेहतर होगा कि आप नीचे आ जायें।

एक स्थिर मंच

आपको अपना सबसे अच्छा औसत बनाना चाहिये। आप बस आराम से बैठे हों - चाहे आपके घुटने सूज गये हों, आपके टखने बुरी तरह दुख रहे हों - पर आप परमानंद की अवस्था में हों। एक भाग स्वर्ग में है, एक भाग नर्क में है - उन दोनों के ठीक बीच की अवस्था सबसे अच्छी औसत अवस्था है। इसीलिये ध्यान काफी लंबे समय तक करना पड़ता है - जिससे आप ऐसी अवस्था में आयें, जहाँ आप दुनिया के कामों में लगे रहें पर फिर भी परमानंद में रहें। पर अगर आपके पास ऐसा स्थिर मंच ना हो और आप सांसारिक गतिविधि में लग जायें तो आप खो जायेंगे। आज की दुनिया में अधिकतर लोगों के जीवन नियंत्रित हैं - उनके साथ कुछ भी एक सीमा के बाहर नहीं होता। अगर आप जंगल में रह रहे हों तो आपकी परमानंद की सबसे अच्छी औसत अवस्था आपको बहुत सजग, सतर्क बनायेगी और आपकी टिके रहने की योग्यता को बढ़ायेगी।

अगर आप दुखी हैं, डिप्रेस्ड हैं तो आप अच्छी तरह से जीवन नहीं जी सकेंगे - आप चाहेंगे कि ये सब खत्म हो और आप आज ही बाघ का भोजन बन जायें। और अगर आप बहुत ज्यादा मदमस्त हों तो आपको परवाह ही नहीं होगी अगर बाघ आपको खा भी जाये। सिर्फ अगर आप अपनी सबसे अच्छी औसत अवस्था में हैं तो ही आप अच्छे से जी सकते हैं, जो भी संभव हो वो काम आप कर सकते हैं, और अपने और अपने आसपास के लोगों के लिये सुखद हो सकते हैं। अगर आप दुनिया में रहना चाहते हैं तो ये महत्वपूर्ण होगा। पर, अगर आप मस्ती की उस अवस्था में हों कि आपको परवाह ही ना हो कि आपके आसपास क्या हो रहा है, तो आपको पूरी तरह से अलग हो जाना होगा। ऐसे लोग, सामान्य रूप से ज्यादा दिन नहीं रह सकते, वे युवावस्था में ही मर जाते हैं, पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता - मस्ती अपना काम करती है। वे लोग मस्ती की ऐसी गजब की अवस्था में होते हैं कि किसी भी पल उनका जीवन शरीर छोड़ कर बाहर जा सकता है। वे पचास साल जीवित रहने की बजाय अगर जबर्दस्त उल्लास की अवस्था में 5 साल जीते हैं और मर जाते हैं तो ये बिल्कुल ठीक है। उन्होंने वो सब देख लिया है जिसे मनुष्य का अनुभव छू सकता है और अब और कुछ करने के लिये बचा नहीं है।

भाव स्पंदन कार्यक्रम आपको यही दिखाने के लिये है कि आप बिना किसी कारण के मस्ती में चूर हो सकते हैं, जो अच्छा है, पर आप उस अवस्था में ज्यादा रह नहीं सकते। अगर आप हर समय एक सुखद अवस्था में रहना चाहते हैं तो आपको उसके लिये एक स्थिर मंच बनाना होगा जो परमानंद की सबसे अच्छी औसत अवस्था है। साल में कुछ दिन ध्यान करने से ये नहीं होगा। सोच ये है कि साधना आपके जीवन में उतरनी चाहिये। अगर आप अपने आप को साधना के लिये समर्पित कर दें, तो मैं आपके जीवन में एक जीवित वास्तविकता बन जाऊँगा। अभी मैं आपके मन में एक विचार हूँ, एक ख़याल हूँ। आप अगर चाहते हैं कि मैं आपके जीवन के हर पल में एक जीवित वास्तविकता बन जाऊँ तो आपको कुछ समय लगाना होगा जिससे आपको, आप जो कुछ भी हैं, उसके बारे में स्पष्टता आ जाये। अगर आपको अपने लिए ही स्पष्टता नहीं है, तो मैं जो कुछ भी हूँ, वो आप खो देंगे। ऐसा कोई स्थान नहीं है, कोई कोना नहीं है, कोई भी परमाणु नहीं है जिसे सृष्टिकर्ता की कृपा छूती न हो। अगर आप इसे ठीक कर लेते हैं, तो अचानक ही ये अस्तित्व पूरी तरह से नया हो जायेगा।

 

IEO

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