माँ गंभीरी : "क्षमा कीजिये, पार्किंग की यह जगह जग्गी के लिये सुरक्षित है", एक स्वयंसेवक ने मुझसे कहा । "कितनी अनुचित/ग़लत बात है", ऐसा बड़बड़ाते हुए मैं एक लाईन से दूसरी लाईन में अपनी कार खड़ी करने की जगह ढूंढ रही थी। मैं वहाँ अपनी बहन को ले कर आयी थी जो इस योग कक्षा में अपनी अस्थमा की तकलीफ ठीक करने की आशा के साथ आयी थी। मेरी जिम्मेदारी यह थी कि मैं रोज उसे वहाँ छोड़ने और लेने जाऊँ। तो मैं भी उस योग कक्षा में चली गयी। उस समय मैंने बस किशोरावस्था  से बाहर क़दम रखा ही था और पायलट बनने का प्रशिक्षण ले रही एक उत्साही लड़की थी। योग सीखने की बात मेरे ज़ेहन  में भी नहीं थी।

तो उस योग कक्षा में मैं थोड़ी चिड़चिड़ाती हुई बैठी थी और उम्मीद कर रही थी कि कोई जिम प्रशिक्षक जैसा व्यक्ति कक्षा में आयेगा और हमें कुछ योगासन सिखायेगा। मुझे बहुत ही निराशा हुई जब कुछ ही मिनटों के बाद  सफेद कुर्ता और धोती पहने, एक दाढ़ी वाला आदमी वहाँ बहुत आराम से चलते हुए आया। मेरे लिये ये कोई अच्छी शुरुआत नहीं थी। यद्यपि सदगुरु की आवाज़ बहुत ही आकर्षक एवं प्रभावी थी, मैंने उनकी ओर ज्यादा ध्यान नहीं दिया। अगले दिन मैं थोड़ा जल्दी आयी और उनकी पार्किंग की जगह को चुराते हुए मैने अपनी कार उनकी जगह पर खड़ी कर दी। इससे मुझे बहुत संतोष मिला और मैं कक्षा में आराम से बैठी। लेकिन उस दिन मुझे स्वयं अपने में और उनमें भी बहुत अंतर लगा। कक्षा से वापिस आते समय , हम दोनों बहनें जो हमेशा बहुत ज्यादा बातें करती रहतीं थीं, उस दिन शायद ही कुछ बोली होंगीं। तीसरे दिन उनका पार्किंग स्थान खाली था पर मैंने निर्णय लिया कि मैं अपनी कार वहाँ नहीं लगाऊँगी। उस दिन मैं बहुत ध्यानपूर्वक कक्षा में बैठी और उनके प्रत्येक शब्द को एकाग्रचित्त हो कर सुना। मुझे बहुत आश्चर्य हुआ जब कक्षा के बाद सदगुरु मेरे पास आये और बड़े आराम से मेरे साथ मेरे उड़ान के अनुभव के बारे में बात करने लगे।

उस रात मैं सो न सकी।

मुझे आध्यात्मिक मार्ग के बारे में कुछ भी पता नहीं था, न ही यह कि आत्मज्ञान क्या होता है या गुरु क्या होता है ! मैं सदगुरु के बारे में भी कुछ नहीं जानती थी लेकिन मुझे ऐसा लगने लगा जैसे मैं हमेशा से उन्हें जानती थी। उस दिन मुझे यह बात एकदम स्पष्ट हो गयी कि यही मार्ग, जो कुछ भी ये था, मेरा जीवन होगा। लेकिन मुझे ये नहीं मालूम था कि ये कैसे होगा। उस दिन से मैंने पूरे उत्साह से एक स्वयंसेविका के रूप में काम करना शुरू कर दिया। चूंकि मेरी उम्र अधिक नहीं थी, मेरे माता पिता को ये चिंता हो रही थी कि क्या मैं ये समझ पा रही थी कि इस रास्ते पर चलने का क्या अर्थ है? अतः वे सदगुरु से यह जानने के लिये मिले कि ये सब क्या हो रहा था ? उस बातचीत के बाद सदगुरु ने मुझे सलाह दी कि मैं तीन महीनों का अवकाश लूँ और उसके बाद तय करूँ कि क्या वास्तव में मैं यह चाहती हूँ ? मेरे माता पिता ने मुझे इंगलैंड भेज दिया पर मेरी स्पष्टता एकदम वास्तविक थी, सही थी और फिर मैं 90 दिन का होलनेस कार्यक्रम करने के लिये वापस आ गयी।

मैं अपने माता पिता के प्रति कृतज्ञ हूँ कि उन्होंने मेरे निर्णय का सम्मान किया और मुझे मेरी अगली यात्रा के लिये आशीर्वाद दिया।

एक योग शिक्षक से गुरु

उस 90 दिन के कार्यक्रम में मैंने सदगुरु को जितना देखा, उसने उनके साथ मेरे संबंधों को कई तरह से परिपक्व कर दिया। हर दिन वे एक अलग रूप में दिखते थे और हर दिन उनकी ऊर्जा अलग अलग प्रकार की होती थी। पहले 30 दिनों तक हर दिन वे एक नयी और विस्फोटक ध्यान प्रक्रिया कराते रहे। हम में से बहुत से लोगों को हमारी सामान्य समझ से कुछ ज्यादा जीवन का अनुभव हुआ। 90 दिन के कार्यक्रम के अंत में, जैसे-जैसे हम उनके मित्र से शिष्य में और शिष्य से भक्त में परिवर्तित हो गये, मैंने गहरे में महसूस किया कि सदगुरु का व्यक्तित्व भी स्पष्ट रूप से एक योग शिक्षक से दिव्यदर्शी में और उससे एक गुरु में रूपांतरित हो गया था। यद्यपि हमने ऐसा सोचा या कहा नहीं था, पर यह बिना कुछ तय किये हुए अपने आप ही हो गया। होलनेस कार्यक्रम के बाद मैं वहीं पर पूर्णकालिक रूप से रह गयी - अब मेरे सामने एक यही रास्ता था । लेकिन कुछ ही दिनों में मुझे पता चलने वाला था कि बिना कुछ चुनाव किए इस रास्ते पर चलने का क्या मतलब था।

अपना संतुलन पाना

होलनेस कार्यक्रम के बाद मेरी ऊर्जाएँ कुछ इस प्रकार से खुल गयीं कि मैं रोज ही अपने अंदर परमानंद के शिखरों के साथ साथ भयंकर, यातनामय दुखों के भी शिखर पाती थी। एक 20 साल की लड़की के लिये ऐसे अनुभव झेल पाना कभी-कभी मुश्किल हो जाता था। फिर एक दिन ऐसा आया कि मुझे लगा कि मैं अपने अंदर कहीं बहुत गहराई में गिर गयी हूँ। और मैंने सहायता माँगने के लिये सदगुरु को फोन किया। " इसमें से बाहर आने के लिये मैंने तुम्हें सभी ज़रूरी साधन दिये हैं", उन्होंने बस इतना ही कहा और फोन रख दिया। तब मैंने इसके बारे में सोचा और अपनी नित्य साधना का एक कार्यक्रम तैयार किया। अगले 48 दिनों तक, अपनी सुबह की क्रियाओं और भोजन के बाद, सुबह 10.30 बजे से शाम के 5.30 बजे तक मैं एक नीम वृक्ष के नीचे एक पत्थर, जिसे हम शिवालय कहते थे, पर बैठ जाती थी तथा 3 घंटों तक ओमकार और फिर 3 घंटों तक सुख क्रिया और फिर उसके बाद सम्यमा ध्यान करती थी। मैं शाम को अपना पैर जमीन पर तभी रखती थी जब मुझे 6.20 के सदगुरु सानिध्य टाईम में और फिर शाम की क्रियाओं के लिये जाना होता था। इस साधना और सम्यमा ने मुझे एक ऐसे आंतरिक संतुलन से भर दिया जो आज भी मुझे कई प्रकार की परिस्थितियों का सामना करने के लिये कई प्रकार से सक्षम बनाता है। मेरे जीवन में यह एक परिवर्तन का मोड़ था जिसने मुझे मेरे रास्ते पर स्थिर कर दिया। मैं 1996 में ब्रह्मचर्य में दीक्षित हुई। 

विज्जी अक्का का बिसिबेले भात

शुरुआत में हम बस पांच लोग आश्रम में थे। हमारी प्रिय पाती हमारे लिये लकड़ी के चूल्हे पर खाना बनाती थीं। एक छोटा सा शेड हमारे लिये रसोई घर व खाने के कक्ष का काम करता था। मैं पाती को उसके काम में सहायता करती थी। जब कभी सदगुरु आश्रम में होते थे तो वे सब्जियाँ काटने में हमारी मदद करने आ जाते थे। एक बार विज्जी अक्का ने हमारे लिये बिसिबेले भात बनाया। कुछ अच्छा सुनने की अपेक्षा के साथ उन्होंने सदगुरु से पूछा कि उन्हें कैसा लगा और उनका जवाब था, "हुं हुं... साम्भर साड़म बहुत अच्छा है"। विज्जी अक्का का चेहरा निराशा से गिर गया। उनकी इस तरह की नोंक झोंक हमें बहुत मजेदार लगती थी।

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शुरुआत से ही मेरी और विज्जी की अच्छी पटती थी। वे जब आश्रम में होतीं तो हम साथ ही क्रियायें करते थे। जिस दिन उन्होंने शरीर छोड़ा, हम दिन भर साथ ही थे।

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23 जनवरी 1997 के दिन पूर्णिमा थी। सदगुरु ने मुझे बुलाया और कहा कि मैं विज्जी के साथ ही रहूँ। वे कोई खास साधना कर रहीं थीं तो मैं या तो उनके साथ ध्यान में बैठती या फिर ब्रह्मचारियों के लिये खाना बनाने में उनकी मदद करती थी। वे पूर्णिमा के दिन सभी को खाना खिलाती थीं। लेकिन हमारे ध्यान के पहले सत्र के बाद वे सीधे सदगुरु की डेस्क पर गयीं और वहाँ से एक डायरी ला कर मुझे देते हुए बोलीं, "आज के बाद तुम इसमें जग्गी के सभी अपॉइंटमेंट्स लिखना और उन्हें भेजती रहना"। मैंने हल्के से विरोध किया। मुझे यही ठीक लगता था कि मैं रोज विज्जी को सदगुरु के अपॉइंटमेंट्स के बारे में बताऊँ और फिर वे ही उन्हें सूचित करें। ये व्यवस्था सही ढंग से चल रही थी तो मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि वे उसे क्यों बदलना चाहती थीं ? लेकिन वे अड़ी रहीं। मैंने, ये सोचते हुए डायरी ले ली कि मैं किसी भी तरह ये नहीं करूंगी। मुझे इस बात का बिल्कुल भी ख्याल नहीं था कि उनकी उसी शाम को शरीर छोड़ देने की योजना थी।

वो डायरी आज भी मेरे पास है। ये मेरे लिये सिर्फ एक स्मृति के रूप में ही नहीं है बल्कि ये उस संभावना की रोज़ याद दिलाती है जो यहाँ है। निराशा और दुःख के क्षणों में ये मुझे आगे बढ़ाती रही है।

प्राण-प्रतिष्ठा का मूल्य

इसी बीच सदगुरु ने ध्यानलिंग प्रतिष्ठा के लिये आवश्यक ऊर्जा प्रक्रियाओं पर काम शुरू कर दिया था और हममें से किसी को भी इसका अर्थ मालूम नहीं था। सदगुरु हमें इस बात के लिये तैयार कर रहे थे कि प्रतिष्ठा के बाद वे संभवतः अपना शरीर छोड़ देंगे - वास्तव में उन्होंने अपने लिये समाधी स्थल भी तैयार कर लिया था। अंदर ही अंदर, हम सब में बहुत ही उथल पुथल और घबराहट थी। हमारी ये इच्छा तो थी कि ध्यानलिंग का प्राण प्रतिष्ठा हो पर साथ ही सदगुरु का जीवन भी हमारे लिये बहुत मूल्यवान था, हम उन्हें किसी भी तरह खोना नहीं चाहते थे। हम समझ नहीं पा रहे थे कि परिस्थिति को कैसे संभालें तो हम सभी ब्रह्मचारियों ने यह तय किया कि हमसे जो भी बन पड़ेगा, स्थिति  को सरल बनाने के लिये हम करेंगे। हम सभी युवा थे तो हमने सबसे पहले यह तय किया कि हम आपस में झगड़ेंगे नहीं और सदगुरु को कोई परेशानी न हो इसके लिये अपने मतभेद हम स्वयं ही सुलझा लेंगे। दूसरे, हम सबने उनकी दीर्घायू के लिये संकल्प और कामना करते हुए चित्त शक्ति ध्यान करना शुरू किया और कई सप्ताहों तक हम रोज़ ये करते रहे।

प्रक्रिया लगभग पूर्ण होने को  आ गयी थी पर सदगुरु हमें अंतिम प्रतिष्ठा विधि की निश्चित तारीख नहीं दे रहे थे क्योंकि वे चाहते थे कि उनका शरीर  इसके लिए पूर्ण रूप से  तैयार हो । पहले वे कहते थे, ये जल्दी ही होगा। फिर उन्होंने कहना शुरू किया, "ठीक है, शायद कल या शायद परसों"। हम अपने जीवन की सबसे अधिक व्याकुलता अनुभव कर रहे थे । 23 जून 1999 के दिन सदगुरु ने कहा कि पूर्ण प्रतिष्ठा अगले दिन होगा। उन्होंने हमसे कहा कि हम बस बहुत थोड़े, अनुशासित स्वयंसेवकों को ही बुलायें जो उनकी प्रक्रिया के आख़िरी चरण में किसी भी प्रकार की कोई बाधा न पहुचायें। तो  उस दिन गुम्बद के नीचे लगभग 150 - 200 लोग अंतिम प्रक्रिया में बैठे।

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इस प्रक्रिया में आमंत्रित साधकों को ध्यानलिंग की तरफ पीठ कर के बैठाया गया था जब कि हम ब्रह्मचारी लिंग की तरफ मुंह कर के बैठे थे। सदगुरु अवुदायर - एक खास पत्थर के मंच पर थे। एक खास प्रक्रिया के अंतिम भाग में उन्होंने कहा, "आज्ञा"। हमने उनके द्वारा पहले ही दिये गये निर्देशों के अनुसार प्रक्रिया को जारी रखा। फिर उन्होंने कहा, "विशुद्धि", फिर कहा, "अनहत"। जब उन्होंने "मणिपूरक" कहा तो वे आगे झुक गये जैसे कि उन्हें बहुत दर्द हो रहा हो। फिर उन्होंने "स्वाधिष्ठान" कहा और उनके पैर काँप रहे थे, वे स्थिर खड़े नहीं रह पा रहे थे। यह देख कर मैं किसी आशंका से लगभग अपने पैरों की उंगलियों पर बैठी थी। अंत में हमने उन्हें "मूलाधार" कहते सुना और नीचे गिरते देखा। मैं अपनी सहज बुद्धि से तेजी के साथ दौड़ पड़ी और इससे पहले कि उनका सिर पत्थर से टकराता, मैंने अपना हाथ उनके सिर के नीचे रख दिया। तब तक अन्य ब्रह्मचारी भी दौड़ कर आ गये और चारों ओर इकट्ठा हो गये।

हम उन्हें बाहर खड़ी गाड़ी में ले गये और उन्हें घर तक पहुंचाया। अगले तीन दिनों तक हमने उन्हें नहीं देखा, सिवाय एक बार बहुत थोड़े समय के लिये जब वे स्वयंसेवकों की एक बैठक में आये। उस समय भी ब्रह्मचारी उन्हें सहारा दे रहे थे। मैं बहुत बेचैन थी कि उनके स्वास्थ्य के बारे में कोई संतोषजनक बात सुनने को मिले। तीन दिन बाद मुझे उनका संदेश मिला कि मैं वहाँ आ कर उनसे मिलूँ। मैं जब वहाँ गयी तो वे अपनी आरामकुर्सी पर बैठे थे,मुस्कुरा रहे थे और बहुत ही शानदार दिख रहे थे। मैं उनको पकड़ कर रोयी, उनकी आंखों में भी आँसू थे। उस क्षण सब कुछ एकदम ठीक हो गया था। वे वहाँ थे, जीवित, हमारे साथ।

ईशा के बढ़ने की शुरुआत

प्रतिष्ठा पूर्ण होने के साथ ही हमारी गतिविधियाँ कई गुना बढ़ने लगीं और हम सब कई तरह के अलग अलग काम एक साथ करने लगे। आश्रम की देखभाल से ले कर रसोईघर और आश्रम के प्रशासन तक मेरी गतिविधियाँ बढ़ती रहीं। सदगुरु में एक बात है कि वे हर चीज़ को एक उत्सव की तरह बना देते हैं। अतः, यद्यपि हम दिन रात काम करते थे पर हर समय उत्साह का वातावरण रहता था, एक प्रकार की प्रचुरता रहती थी। 

आश्रम की व्यवस्थाओं को आकार देते हुए हमें बहुत मजा आ रहा था। मुझे याद है, मैं और स्वामी निसर्ग स्पंदा हॉल में एक नये रसोईघर की योजना बना रहे थे। बाद में, इस रसोईघर के लिये बर्तनों की व्यवस्था में मार्गदर्शन के लिये मैंने एक चेट्टियार परिवार से बात की। इस समाज में, शादी के समय, दहेज के तौर पर सोने और हीरों के अलावा बर्तनों का एक पूरा भंडार दिया जाता है। तो उन्होंने यह प्रस्ताव दिया कि वे अपने दहेज में आये बर्तनों के भंडार को हमें मामूली सी कीमत पर बेच देंगे। हमें उनके वहाँ से चम्मच, कटोरे, थालियां, परोसने के बड़े चम्मच, लोटे, पकाने के बड़े बर्तन और रसोई के अन्य उपकरण इकट्ठा करते हुए बहुत मजा आया। सोचिये, एक महिला के दहेज से हमारा पूरा रसोईघर तैयार हो गया।

हमने एक नियम बनाया। महीने में एक दिन हम सब रसोईघर में आते, खाना पकाने और परोसने में मदद करते और हममें से कुछ लोग सिर्फ शैतानी करते। उस दिन हम लोग बाहर बगीचे में इकट्ठे खाते थे। सदगुरु जब भी आश्रम में होते तो वे भी हमारे साथ शामिल हो जाते। एक बार उन्होंने कहा कि ये प्रथा चालू रहनी चाहिये और इसे पूर्णिमा के दिन किया जाये - रात को रोशनी बन्द कर के चंद्रमा के प्रकाश में सब इकट्ठा खाना खायें। तब से हम सब का अत्यंत प्रिय 'मूनलाईट डिनर' - 'चंद्रप्रकाश भोजन' अस्तित्व में आया।

एक अनपेक्षित रहस्योद्घाटन

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बाद के वर्षों में, जब ईशा यात्रा मेरी मुख्य जिम्मेदारी बन गयी, सदगुरु ने मुझे यह पता लगाने के लिये कहा कि क्या हम साधकों को तिब्बत में कैलाश मानसरोवर की यात्रा पर ले जा सकते हैं ? तो साल 2006 में हम पहली बार साधकों को कैलाश मानसरोवर  ले गये, इस यात्रा में 160 साधक थे। मैं हमेशा काम करने में व्यस्त रही और मैंने कभी भी कैलाश पर्वत तथा मानसरोवर को आध्यात्मिक दृष्टि से नहीं देखा था। मेरे लिये तो यह एक काम था जो सही ढंग से करना था।

जब एक स्थान पर सदगुरु की जीप रुक गयी और मैंने उन्हें उतरते देखा तो मैं भी उनके पीछे आ रही अपनी गाड़ी से उतरी। सीधे, सामने, कुछ दूरी पर एक बड़ा सरोवर था। जब मैंने उसकी ओर देखा तो मुझे लगा जैसे मेरे अंदर कुछ बदल गया हो। मेरी आँखें पानी से भर गयीं। तब तक मैंने ये सोचा भी नहीं था कि मैं एक ऐसे शक्तिशाली स्थान की यात्रा पर थी -- मैं तो बस व्यवस्था करने में जुटी थी। जब मैंने मुड़ कर सदगुरु की ओर देखा तो उनकी आँखों में भी आँसू थे। तब से हर साल कैलाश मानसरोवर यात्रा का आयोजन करना, उसकी सारी व्यवस्थायें करना, मेरे जीवन का एक अभिन्न अंग बन गया है। इसमें बहुत सारी जटिल बातें देखनीं पड़ती हैं, कई असंभव लगने वाले काम करने पड़ते हैं, जिससे अनेक देशों से आने वाले सैकड़ों साधकों को सुरक्षित चीन के बड़ी ऊंचाई वाले, निर्जन क्षेत्र में ले जाया जा सके। मैं अपने आप को अत्यंत सौभाग्यशाली मानती हूँ कि मुझे इस जिम्मेदारी का आशीर्वाद मिला है।

पीड़ा का परमानन्द

2009 की यात्रा में मेरे साथ कुछ अलग ही हुआ।

कैलाश जाते समय मेरे साथ एक दुर्घटना हुई जिसमें मेरी कलाई पर कई फ्रैक्चर्स हो गये। सौभाग्य से हमारे डॉक्टर्स में से एक वहाँ दस मिनट में ही आ गये और उन्होंने मुझे तत्काल उपचार दे कर कुछ समय के लिये थोड़ी राहत दी। लेकिन दर्द असहनीय था।उन्होंने मुझे कई इंजेक्शन्स एवं दर्द निवारक दवायें दीं पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा था। मैं दर्द के कारण सो नहीं पा रही थी। तकियों के सहारे बैठी थी और मेरे कमरे की खिड़की से मुझे कैलाश के दर्शन हो रहे थे। मेरी रूम-मेट मेरे पास आराम से सो रही थी। थोड़ी देर में मैंने महसूस किया कि मैं अंदर ही अंदर शम्भो, शम्भो जप रही थी और कुछ ही देर में ये जप अपने आप सदगुरु, सदगुरु हो गया। मैंने ऐसा जानबूझ कर नहीं कर रही थी पर ये अपने आप, लगातार हो रहा था। मुझे ये पता भी नहीं था कि हम सदगुरु, सदगुरु जप सकते थे या नहीं। धीरे-धीरे मुझे महसूस हुआ कि दर्द में और मुझमें एक दूरी थी। असहनीय दर्द अभी भी था पर फिर भी मुझे नहीं हो रहा था।

उस साल जब मैं कैलाश से लौटी तो मुझे पता चल गया कि मुझमें कुछ मूल रूप से बदल गया था। मैं सोचती थी, "क्या है ये जो बदल गया है" ? कुछ दिनों बाद मुझे समझ में आया कि जहाँ तक मुझे याद था, बचपन से ही, मैं कितनी भी प्रसन्न क्यों न होऊँ, हमेशा एक अजीब तरह का दर्द मेरे अंदर रहता था, वो दर्द अब नहीं था।

ऐसे ही एक बार, मैं जब अंदर से बहुत उदास महसूस कर रही थी, अपनी रोज की शाम की चहल कदमी के लिये शिवपादम की तरफ गयी। जब मैं चल रही थी और एक हल्का सा हवा का झोंका मुझ तक आ रहा था, मुझे ऐसा लगा कि एक अनोखी शांति मुझ पर छा रही थी। मैं रुक गयी और पहाड़ की तरफ देखने लगी। उन क्षणों में मुझे हर किसी के साथ समावेशता का भाव मुझमें आता जान पड़ा। आकाश, पहाड़, हवा, वृक्ष, मेरे चारों ओर का जीवन मुझे अपने अंदर ही जान पड़ा। यह संवेदना कुछ देर तक रही। उसके बाद कई दिनों तक मैं खुले पैर ही चलती थी क्योंकि मिट्टी के स्पर्श से मैं बहुत जुड़ा हुआ महसूस करती थी, और मुझे अपने अंदर एक गहरे मौन का भाव महसूस होता था।

मेरे जीवन में, जब मैं बिल्कुल भी कोई अपेक्षा नहीं कर रही थी, तभी सबसे ज्यादा परिवर्तन के क्षण आये।

देवताओं को भी ईर्ष्या हो

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प्रारंभिक दिनों में, जब हमने जमीन के एक छोटे से टुकड़े पर बहुत छोटी सी शुरुआत की थी, तभी हम सपने देखते थे कि एक समय आयेगा जब सारी दुनिया, सदगुरु को, उस बात के लिये जो वे हैं, मानेगी, सम्मानित करेगी। अब, जब हम ये होता हुआ देखते हैं, तो हृदय भावनाओं से भर जाता है, अत्यंत प्रसन्न होता है। उन दिनों से, जब मैं सदगुरु के साथ आश्रम के लिये ज़मीन देखने निकलती थी, आज तक, ये मेरा विशेषाधिकार रहा है। इस यात्रा में प्रारंभ से अब तक मैं उनके साथ रही हूँ। सदगुरु ने एक बार कहा था कि हमें ऐसा स्थान बनाना चाहिये जिससे देवताओं को भी ईर्ष्या हो। मुझे खुशी है कि जिन्होंने यह बनाया है, मैं उनके साथ रहती हूँ।

Editor's Note: Watch this space every second Monday of the month as we share with you the journeys of Isha Brahmacharis in the series, "On the Path of the Divine."