वेल्लिंगिरी पर्वत - बचपन से सद्गुरु की आँखों में बसे थे
जिस युग और उम्र में हममें से ज्यादातर लोग जंगलों में पूरी तरह खो जाएंगे, सद्गुरु बचपन में भी और अब भी एक दिव्यदर्शी के तौर पर, प्रकृति से गहन संपर्क में रहे हैं।
पर्वतों का रहस्यवादी
सद्गुरु: जब मैं नवजात था, तभी से मेरी आँखों के पीछे जैसे एक ख़ास पहाड़ की झलक बसी हुई थी। जब मैं सोलह बरस का हुआ और अपने दोस्तों से इस बारे में बात की, तो वे बोले, “तुम पागल हो गए हो? कहाँ हैं पहाड़?” तब मुझे एहसास हुआ कि मेरे सिवा किसी दूसरे की आँखों में पहाड़ों की छवि नहीं थी। कुछ समय के लिए सोचा कि क्यों न उन्हें खोजा जाए, पर फिर मैंने यह विचार छोड़ दिया। जैसे आपके चश्मे पर कोई धब्बा सा हो और आप उसे देखने के आदी हो जाएँ। यह भी कुछ ऐसा ही था। बहुत बाद में, जब मेरी पुरानी यादें सामने आईं, और मैं ध्यानलिंग की प्रतिष्ठा के लिए स्थान खोज रहा था, तब मैंने अपनी आँखों में बसी उस ख़ास तरह की चोटी को खोजना शुरू किया।
मैं हर जगह घूमा। मैंने अपनी मोटरसाइकिल पर गोवा से कन्याकुमारी तक, कम से कम चार बार दौरा किया। जाने क्यों ऐसा लगता था कि उन्हें पश्चिमी घाट में ही होना चाहिए। कारवाड़ के हर रास्ते और धूल से लथपथ राहों से ले कर, कर्नाटक में केरल की सीमा तक, मैंने शायद हज़ारों किलोमीटर का रास्ता तय किया होगा।
फिर अचानक मैं कोयंबटूर के बाहर बसे, एक गाँव में जा पहुँचा। जब मैं एक मोड़ से नीचे उतर रहा था तो मेरी नज़र ववेल्लिंगिरी पर्वतों की सातवीं पहाड़ी पर गई। यह तो वही था, यह वही पर्वत था, जिसे मैं अपने बचपन से देखता आ रहा था। और उसी दिन से वे मेरी आँखों के आगे से ओझल हो गए।
अगर आप मुझसे पूछें, “धरती का सबसे महान पर्वत कौन सा है?” तो मेरा उत्तर होगा, “वेल्लिंगिरी पर्वत।” वे मेरे लिए सिर्फ पर्वत नहीं हैं। मैं अपनी आँखो में इनकी झलक के साथ जन्मा था और वे तब से ही मुझे सताते आए हैं। वे मेरे साथ रहे और मेरे मार्गदर्शक बने, मेरा जीपीएस! मेरे लिए ये पहाड़ चट्टानों का ढेर नहीं थे। ये उस ज्ञान का स्त्रोत थे, जो मुझे ध्यानलिंग की प्राण प्रतिष्ठा के लिए चाहिए था।