कर्मबन्धन से बाहर कैसे निकलें
एक ऐसे शब्द के बारे में बताते हुए, जिसका बहुत लंबे समय से, अलग-अलग तरह से उपयोग और दुरुपयोग होता रहा है, यहाँ सद्गुरु 'कर्मबंधन' का मतलब समझा रहे हैं। यह समझाते हुए कि इसके प्रभाव कितनी गहराई तक असर करते हैं, वे हमें ये भी बता रहे हैं कि इस जटिल ढाँचे का हैंडल कहाँ है, यानि इससे निकलने का रास्ता कैसे पायें?
आजकल, वैज्ञानिक एपीजेनेटिक्स पर शोधकार्य कर रहे हैं, जो जीवविज्ञान की एक शाखा है और ये समझाती है कि कैसे किसी मनुष्य के व्यवहार और जीवन अनुभव उनके डी एन ए पर असर डालते हैं और एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी तक पहुँचाये जाते हैं। पर, यौगिक दृष्टिकोण से, भूतकाल का प्रभाव पूर्वजों से भी परे जाता है, पृथ्वी के पहले जीवन तक। इस लेख में सद्गुरु 'कर्मबंधन' का मतलब समझा रहे हैं जो एक ऐसा शब्द है, जिसका बहुत लंबे समय से, अलग-अलग संदर्भों में, उपयोग और दुरुपयोग होता रहा है। यह समझाते हुए कि इसके प्रभाव कितनी गहराई तक असर करते हैं, वे हमें यह भी बता रहे हैं कि इस जटिल ढाँचे का हैंडल हमारे पास कैसे आये?
सद्गुरु: कर्मबंधन का मतलब है कुछ किया जाना या किये जाने की छाप, जो हमारे अंदर रहती है। आपके पिता ने जो काम किये वे, आपके अंदर, न सिर्फ आपकी परिस्थितियों में काम कर रहे हैं और जिंदा हैं बल्कि आपकी हर कोशिका में हैं। अपने माता पिता से छुटकारा पा लेना इतना आसान नहीं है। आपने देखा होगा कि जब आप 18 या 20 साल के थे तो आपने अपने पिता या माता के खिलाफ पूरी तरह से विद्रोह किया होगा पर अब, जब आप 40 या 45 साल के हैं तो आप उनके जैसा बोलना, चलना और दिखना भी शुरू कर देते हैं। ये कहने का एक बहुत ही बेकार ढंग है क्योंकि अगर ये पीढ़ी भी उसी तरह से व्यवहार करने जा रही है, उसी तरह से काम कर रही, जी रही और जीवन का अनुभव ले रही है जैसा पिछली पीढ़ी ने किया था तो ये व्यर्थ पीढ़ी ही होगी। इस पीढ़ी को जीवन का अनुभव ऐसे लेना चाहिये जो पिछली पीढ़ी ने सोचा भी नहीं था। मेरा कहने का मतलब ये नहीं है कि आप रास्ते पर कुछ पागलपन करें। मेरा कहना ये है कि जिस तरह से आप जीवन का अनुभव लेते हैं, वो पूरी तरह से बदल सकता है, इसे अनुभव के अगले स्तर तक ले जाया जा सकता है।
मूल पुकार
पर, कर्मबंधन सिर्फ आपका, आपके पिता या दादा का ही नहीं है। इस पृथ्वी पर जीवन के उस पहले रूप, उस जीवाणु या वायरस के, उस एक कोशिका वाले प्राणी के कर्मबंधन भी, आज भी, आपके अंदर जीवित हैं। जिस तरह का जीवाणु आपके शरीर में है, वो एक खास व्यवहार का नमूना लिये हुए है और इसका आधार उस तरह का जीवाणु है जो आपके माता-पिता, दादा-दादी या नाना- नानी के शरीरों में था। आपके, अपने आपके बारे में जो भी बड़े-बड़े विचार हैं, अपने व्यक्तित्व के बारे में जो भी बड़े-बड़े खयाल हैं, वे सब गलत हैं, झूठे हैं। तभी तो हमने आपको बताया था कि ये सब माया है क्योंकि जिस तरह से चीजें आपके अंदर हो रही हैं वो इसलिये है कि लगभग वो सब कुछ जो आप करते हैं वो सब भूतकाल की जानकारी से नियंत्रित होता है।
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अगर मैं आपसे कहूँ, "आपको कुछ भी करने की ज़रूरत नहीं है, हम आपके लिये सब कुछ कर देंगे, आप बस बैठिये और दिन में 12 घंटे ध्यान कीजिये" तो आपको शुरुआत में ये एक बहुत बड़ा सौभाग्य लगेगा, मजे की बात लगेगी। पर, एक महीने बाद आप पागल हो रहे होंगे। अगर आप उस पागलपन के पार चले जायें तो आप हर किसी चीज़ के पार चले जायेंगे, पर जब उनके अंदर ये आने लगता है तो ज्यादातर लोग इसे छोड़ देते हैं। वे बौखला जायेंगे और भाग जाने की कोशिश करेंगे क्योंकि ये कोई आसान बात नहीं है। ये आपके पिता, दादा, पूर्वजों और उस जीवाणु का मौलिक रुदन है, उनकी मूल चीख है। वे सभी लाखों जीवन अपने आपको अभिव्यक्त करने के लिये चीखेंगे। वे अपनी बात कहना चाहेंगे। वे आपको ऐसे ही आज़ाद हो कर नहीं जाने देंगे। आप उनको टाल नहीं सकते, न ही अनदेखा नहीं कर सकते हैं क्योंकि वे आपकी हर कोशिका में धड़क रहे हैं।
"क्या ये कहने का मतलब ऐसा है कि मैं बहुत बुरी तरह फँसा हुआ हूँ, अटका हूँ और मेरे मुक्त होने की कोई आशा ही नहीं है"। हाँ! आप फँसे तो हैं ही पर, कोई आशा नहीं है, ऐसा भी नहीं है। एक पशुपत होने से ले कर - जो पशु स्वभाव की एक मिश्रित अभिव्यक्ति है, उस एक कोशिका वाले जीव से सबसे ऊँचे स्तर पर जाने की - एक संभावना है, पशुपति बनने की! पशु का अर्थ है जीवन, और पति का अर्थ है स्वामी। तो, सभी जीवों का स्वामी बनने की संभावना तो है ही। सब कुछ छोड़ कर, सभी के परे जाने की संभावना तो है ही।
बात को समझें
ये समझा जाना चाहिये, कर्म आपके शत्रु नहीं हैं। कोई भी चीज़ क्या है, इसकी चेतना ना होना आपकी शत्रु है। कर्म तो जीवन की याददाश्त है। आपका शरीर जिस तरह से बना हुआ है, आप उसे वैसा बना पाये हैं क्योंकि जीवन की यादें हैं, उस एक कोशिका वाले जीव से ले कर किसी भी रूप वाले जीवन की! भौतिक शरीर में आपके अस्तित्व का आधार आपके कर्म ही हैं। अगर आपके सभी कर्म ले लिये जायें, तो इसी समय आप अपना शरीर यहीं छोड़ देंगे। ये आपके संबंध, जुड़ाव को काट देने जैसा है। कर्म एक गोंद की तरह है, इसी ने आपको शरीर से जोड़ कर रखा है।
आपको अपना शरीर या मन बदलने की ज़रूरत नहीं है, ज़रूरत ये पता करने की है कि हैंडल कहाँ है? अभी, जब आप कार में बैठते हैं तो अपने आपको सीटबेल्ट से बाँध लेते हैं। सीटबेल्ट एक अच्छी चीज़ है। ये आपका जीवन बचा सकती है। पर, मान लीजिये कि आप अपने आपको सीटबेल्ट में कुछ इस तरह बाँध लेते हैं कि जब आप इसे खोलना चाहें तो ये खुले ही नहीं। तब, ये आपके लिये एक कारागार में होने जैसी परिस्थिति बना देगी। आप जब कार में बैठते हैं तो दरवाजा बंद कर लेते हैं जो एक अच्छी बात है। पर, मान लीजिये, आप कार में बैठ जायें और दरवाजा खोल ही न सकें, तो ये एक भयंकर बात हो जायेगी। आपको बस पता होना चाहिये कि हैंडल कहाँ है? फिर, अगर आपके पास कर्मबंधनों का पहाड़ भी है तो भी कोई समस्या नहीं होगी।
समस्या कर्मबंधनों की वजह से नहीं है, समस्या इसलिये है क्योंकि आप इसमें फंस गये हैं, इसके जाल में अटक गये हैं। अगर आपके और आपके शरीर के बीच, आपके और आपके मन के बीच थोड़ा सा अंतर आ जाये तो फिर कोई भी कर्मबंधन हो, उसका आप पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। आप इसका उपयोग फिर भी कर सकते हैं, जिससे आप शरीर में रहें और जियें। आप, फिर भी, एक खास व्यक्तिगत चरित्र रख सकते हैं पर ये आपके लिये बंधन नहीं बनेगा। ये आपके लिये शुरुआती कदम बन जायेगा, आगे जाने का रास्ता बन जायेगा।
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