मिट्टी बचाओ : मिट्टी में फिर से जान फूंकने के तरीके
हमें यह पक्का करना होगा कि हमारी मिट्टी समृद्ध और उपजाऊ है - सिर्फ तभी हम इस पर्यावरण से जुड़ी आपदा से बच पाएंगे। सद्गुरु मिट्टी में फिर से जान फूंकने के महत्व के बारे में बता रहे हैं। साथ ही, वे पांच तरीके बता रहे हैं जिनका उपयोग करके हम मिट्टी को बचा सकते हैं।
#1. मिट्टी को बचाने की क्या ज़रूरत है?
सदगुरु : इस धरती पर जीवन अलग अलग रूपों में है - सूक्ष्म कीटाणु, कीड़े, पक्षी, पशु, मनुष्य, पेड़ पौधे और हर तरह की हरियाली। इन सब का 87% हिस्सा औसतन 39 इंच ऊपरी मिट्टी की वजह से ही रहता और बढ़ता है। और, इन सब को अभी बहुत बड़ा खतरा है। पिछले 40 सालों में दुनिया की 40% ऊपरी मिट्टी का नाश हो गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने कहा है कि अब हमारे पास जो मिट्टी बची है, उसमें अगली 80 से 100 फसलें ही हो पायेंगीं। इसका मतलब है कि हम आने वाले 45 से 60 सालों तक ही खेती कर पायेंगे और उसके बाद अन्न उगाने के लिये हमारे पास ज़रूरी मिट्टी नहीं बचेगी। आप समझ सकते हैं कि हम सारी दुनिया के लिये कितना दुःख, कितनी पीड़ा की परिस्थिति बना रहे हैं! भारत की 30% जमीन की पहले ही दुर्दशा हो चुकी है और हमारे 90% राज्यों में खेती की जमीन रेगिस्तान में बदलती जा रही है। इसका मतलब है कि वहाँ अब कुछ भी उगाया नहीं जा सकता। तो हमारी अगली पीढ़ियों के लिये, देश की मिट्टी को बचाना और उसे खेती लायक बनाना सबसे अहम बात है।
#2. मिट्टी का पुनरुद्धार पर्यावरण की मदद कैसे कर सकता है ?
मैं जर्मनी में संयुक्त राष्ट्र संघ की एक संस्था में भाषण दे रहा था। उन लोगों ने मुझसे पूछा, "पर्यावरण संबंधी विनाश को रोकने के लिये कौन सी तीन चीजें हमें करनी चाहियें"? मैंने कहा, "तीन चीजें हैं - मिट्टी, मिट्टी और मिट्टी"! ये एक ऐसी बात है जिसकी ओर कोई ध्यान नहीं दे रहा क्योंकि शहरों में तो हवा के प्रदूषण के बारे में ही बात करने की फैशन है। मैं यह नहीं कह रहा कि ये चिंता का विषय नहीं है पर अगर आप मिट्टी को ठीक करने के लिये जरूरी काम करेंगे तो इससे पानी की समस्या भी हल हो जायेगी। अगर आप अपनी आर्थिक गतिविधियों की प्रचुरता को थोड़ा कम करने को तैयार हों तो हम हवा के प्रदूषण को थोड़े ही समय में दूर कर सकते हैं। पर, हमने जिस मिट्टी को बरबाद कर दिया है, उसे पुनर्जीवित करने के लिये हमें 15 से 20 साल लगेंगे, वो भी तब जब हम जरूरी काम तेजी से और लगातार सही ढंग से करें। अगर आप इसे ऐसे ही, बिना किसी खास रुचि और भागीदारी के करेंगे तो मिट्टी को एक खास स्तर तक लाने में 40 -50 साल का समय निकल जायेगा। अगर मिट्टी उतने लंबे समय तक खराब हालत में रहे तो दो से तीन पीढ़ियों का समय बहुत ही तकलीफों भरा होगा।
#3. मिट्टी के पुनरुद्धार के पाँच तरीके :
#3.1 जैविक अंश मिट्टी को स्वस्थ बनाता है
भारत में हज़ारों पीढ़ियों से उसी जमीन को जोता जा रहा है, उसी जमीन पर खेती की जा रही है। पर, पिछली पीढ़ी में मिट्टी की गुणवत्ता इतनी ज्यादा खराब हो गयी है कि ये अब रेगिस्तान बनने की तैयारी में है। उपजाऊ मिट्टी को बचाने के लिये उसमें जैविक (ऑर्गेनिक) अंश अंदर जाना जरूरी है। पर हमारे (खेतों पर जो पहले हुआ करते थे वे) सारे पेड़ काट डाले गये हैं और(खेतों पर जानवर भी नहीं है) लाखों जानवरों का निर्यात दूसरे देशों में किया जा रहा है। सही बात तो यह है कि इन पशुओं के रूप में हमारी उपजाऊ, ऊपरी मिट्टी दूसरे देशों में जा रही है। जब ऐसा हुआ है, हो रहा है तो आप मिट्टी को अच्छी दशा में कैसे रख सकते हैं, उसे कैसे उपजाऊ बना सकते हैं?
अगर खेतों की जमीन पर पेड़ों की पत्तियाँ और जानवरों का कचरा नहीं गिरते, तो मिट्टी में जैविक अंश डालने का कोई तरीका नहीं है। यह एकदम सामान्य बुद्धिमत्ता की बात है जो हमारे किसान परिवार सदियों से जानते थे। वे जानते थे कि खेती की जमीन के आकार, नाप के हिसाब से उस पर कितने पेड़ और कितने जानवर होने चाहिये!
भारत की यह एक राष्ट्रीय आकांक्षा है जो पुराने योजना आयोग ने तय की थी कि भारत का 33% हिस्सा पेड़ों से ढका हुआ होना चाहिये क्योंकि अगर आप अपनी मिट्टी को बचाना, समृद्ध रखना चाहते हैं तो यही तरीका है। और, मैं यह कोशिश कर रहा हूँ कि सरकार यह कानून बनाये कि अगर आपके पास 1 हेक्टेयर जमीन है तो उस पर गोवंश के कम से कम 5 जानवर होने चाहियें। हमारे देश की जमीन के बारे में एक बहुत अद्भुत बात है, जिसके लिये हमारे पास वैज्ञानिक आँकड़े हैं पर अभी भी कोई वैज्ञानिक तर्क, विचार नहीं है। अगर आप देश के किसी ऐसे हिस्से में जायें जहाँ मिट्टी अच्छी है और उस मिट्टी का 1 घनमीटर हिस्सा लें तो ऐसा बताया जाता है कि उसमें 10,000 प्रकार के जीवजंतु मिलेंगे।
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इतना ज्यादा जैविक (ऑर्गेनिक) अंश इस धरती पर और कहीं नहीं मिलता। हमें नहीं मालूम कि ऐसा क्यों है? तो, इस मिट्टी को बस थोड़ा सहारा चाहिये। अगर आप उतनी थोड़ी सहायता दें तो यह मिट्टी जल्दी ही उपजाऊ और बढ़िया हो जायेगी। पर, क्या आज की पीढ़ी के पास यह छोटी सी सहायता देने की समझ है या हम बस ऐसे ही बैठ कर इस जमीन को मरता हुआ देखते रहेंगे?
आप खेती की मिट्टी को रासायनिक खादों और ट्रैक्टर का इस्तेमाल कर के समृद्ध नहीं रख सकते। इस जमीन पर आपको पशुओं की जरूरत है। प्राचीन समय से, जब से हम अन्न उगा रहे हैं, हम फसलों के केवल दाने लेते थे और बाकी पौधे, पशुओं का मल सब खेतों में ही जाते थे। ऐसा लगता है कि हमारी यह बुद्धिमत्ता कहीं खो गयी है।
#3.2 वृक्ष आधारित खेती
'जंगलों का उत्पाद' (जंगल से मिलने वाली चीज़ें) इस चीज़ को अब हमें भूल जाना चाहिये, अपनी शब्दावली में से ही निकाल देना चाहिये। अब इस तरह की कोई बात रह नहीं जाती क्योंकि पृथ्वी पर अब पर्याप्त जंगल बचे ही नहीं हैं जहाँ से हम कोई उत्पाद पा सकें। वो समय अब बीत चुका है जब ऐसा कुछ था। भविष्य में आप जंगलों के उत्पाद के बारे में कोई बात नहीं कर सकेंगे। हम कोई नया जंगल नहीं बसा सकते क्योंकि उसमें हज़ारों साल का काम चाहिये।
हाँ, हम निश्चित रूप से पेड़ों की छाया बना सकते हैं पर यह काम तब तक नहीं हो सकता जब तक हम वृक्ष आधारित खेती को बड़े पैमाने पर नहीं अपनाते। चूंकि जमीन का बहुत बड़ा हिस्सा किसानों के पास है, जब तक हम उनके लिये पेड़ लगाने के काम को फायदे देने वाला, आकर्षक नहीं बनाते तब तक पर्याप्त पेड़ नहीं लगा सकते।
कई सालों के काम के बाद, अब संयुक्त राष्ट्र संघ यह बात साफ तौर पर मान रहा है कि वृक्ष आधारित खेती सही उपायों का एक बहुत बड़ा हिस्सा है। यही बात हम 22 साल से कह रह हैं और इसके लिये कोशिश कर रहे हैं। अब तक हमारे पास वृक्ष आधारित खेती करने वाले किसानों की संख्या 1,07,000 हो गयी है। वे इस बात को साबित कर रहे हैं कि ये पर्यावरणीय और आर्थिक, दोनों आधारों पर अच्छी तरह काम कर रहा है।
#3.3 माँसाहार कम करें
दुनिया की लगभग 4 करोड़ वर्ग किमी जमीन, जो कुल जमीन का 77% है, पशुओं को बढ़ाने, पालने और उनका चारा उगाने के लिये इस्तेमाल होती है। मिट्टी की दशा को सुधारने के लिये बाकी के जो उपाय हो सकते हैं, उनकी तुलना में माँसाहार कम करना ऐसी चीज़ है जो ज़्यादा आसानी से हो सकती है। अगर आप अपना माँसाहार 50% भी कम करें तो 2 करोड़ वर्ग किमी जमीन पेड़ों पर आधारित खेती के लिये काम आ सकती है। अगर आप इतने पेड़ इस जमीन पर लगा लें, तो अभी जो जंगलों से मिल रहा है वो अपनी खेती की जमीन पर से मिलने लगेगा। किसान अमीर हो जायेंगे और अपने खेतों की मिट्टी को समृद्ध बना लेंगे। एक खास बात, आपको माँसाहार बंद करने को नहीं कहा जा रहा, सिर्फ 50% कम करना है। सभी डॉक्टर्स आपको यही करने को कह रहे हैं। और, यह बात कोई पर्यावरण के लिये नहीं है, आपके स्वास्थ्य, आपके जीवन के लिये है।
#3.4 माँसाहार कम करें
मान लीजिये कोई बीमार है और अस्पताल में है तो निश्चित ही आप उनके लिये बिरयानी या माँस का टिक्का नहीं ले जायेंगे। आप उनके लिये फल ले जायेंगे। तो, संदेश स्पष्ट ही है, "कम से कम अभी तो समझदारी से खाओ"! हाँ, जो ये फल ले जाता है, उसे कुछ नहीं मिलता। जब विदेशी यात्री व्हेनसांग और मेगस्थनीज भारत आये तो उन्होंने देखा कि भारतीयों के हर दिन के आहार में फलों का हिस्सा बहुत ज्यादा होता था। तब उन्होंने कहा, "शायद यही वजह है कि भारतीयों की बुद्धिमत्ता इतनी तेज है"! पर, अब हम बुद्धू होते जा रहे हैं क्योंकि जो खाना हम खा रहे हैं, उसके प्रति जागरूक नहीं हैं।
आप जो कुछ भी खाते हैं, उसका 75% हिस्सा अगर पानी हो तो आपका स्वास्थ्य आसानी से सही रहेगा। जब आप कोई कच्ची सब्जी खाते हैं तो उसमें पानी की मात्रा 70% से ज्यादा है। फलों में तो ये 90%से ज्यादा है और ये सबसे अच्छा आहार है। हमारे कुल आहार का कम से कम 30 से 40% हिस्सा पेड़ों से आना चाहिये, 4 महीनों के चक्रों वाली फसलों से नहीं! इसका मतलब यही है कि हम सब को कुछ ज्यादा फल खाने चाहियें। अभी फल महंगे हैं क्योंकि हम उन्हें न्यूज़ीलैंड, ऑस्ट्रेलिया और थाईलैंड से मंगा रहे हैं। अगर हम यहाँ अपनी स्थानीय जलवायु के हिसाब से उगाये हुए फल खायें तो वे बहुत महंगे नहीं होंगे।
#3.5 धरती के लोगों को जागरूक बनाना
इस धरती का जो नुकसान इसमें हमनें किया है वो अगर किसी और किस्म के प्राणियों ने किया होता, तो शायद हमनें उनसे निपटने का रास्ता खोज लिया होता। मंगल ग्रह से आयी हुई करोड़ों टिड्डियों ने अगर हमारे पेड़ों का नाश कर दिया होता, या हमारी मिट्टी को रेगिस्तान बना दिया होता, और हमारी नदियों को सुखा दिया होता, तो हमनें निश्चित रूप से उनको यहाँ से भगा दिया होता। पर समस्या दूसरे ग्रहों की टिड्डियाँ नहीं हैं, समस्या हम खुद हैं! चूंकि इस समस्या का स्रोत हम ही हैं, तो हम ही इसका समाधान भी बन सकते हैं। हम समस्या इसलिये हैं क्योंकि हम बेहोशी से, मजबूरीवश, आदतन काम करने के आदी हैं।
अगर हम जागरूक होते तो निश्चित ही समाधान भी ढूँढते। यही वजह है कि मैं संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्थाओं और दूसरी संस्थाओं के साथ मिल कर काम कर रहा हूँ और "जागरूक धरती" (कॉन्शियस प्लेनेट) अभियान के विचार को आगे बढ़ा रहा हूँ। दुनिया में ऐसे 520 करोड़ लोग हैं जो अपने देशों में मत देने का अधिकार रखते हैं और अपने देशों की सरकार चुनते हैं। हम कम से कम 300 करोड़ लोगों को इस अभियान से जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं जिससे पर्यावरण संबंधी मुद्दे सरकारों को चुने जाने के मुद्दे बन सकें। हम इन 300 करोड़ लोगों को ऐसे पाँच पर्यावरण संबंधी पहलुओं के बारे में जागरूक करना चाहते हैं, जो उनके देश में होने चाहियें और ऐसे तीन मुद्दे भी जो नहीं होने चाहियें।
अगर हम ऐसा कर सके तो पर्यावरण चुनावी घोषणापत्रों में अगर पहला नहीं, तो दूसरा मुद्दा तो जरूर बन जायेगा। जागरूक धरती अभियान के एक भाग के रूप में, धरती के सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण पहलू, मिट्टी, को पुनर्जीवित करने के काम पर फोकस करने की हम कोशिश कर रहे हैं। आप इस धरती पर जो कुछ भी देखते हैं - कीटाणु, कीड़े, पक्षी, पशु, वनस्पति और हम मनुष्य - सभी उपजाऊ मिट्टी के 39 इंच के भाग की वजह से ही हैं। वो हर उस प्राणी को ज़िन्दा रखती है जिसे हम जानते हैं। अगर हम यह सुनिश्चित कर सकें कि मिट्टी जैविक (ऑर्गेनिक) रूप से स्वस्थ और समृद्ध है तो धरती में यह काबिलियत है कि वो अपना कायाकल्प कर सकती है और हम दूसरी समस्याओं को काफी हद तक निपटा सकते हैं।
अभी तो हाल ये है कि दुनिया के 95% लोगों को ये पता ही नहीं है कि उनके आसपास कितना बड़ा पर्यावरणीय संकट खड़ा होता जा रहा है। लोगों के बस एक बहुत ही छोटे हिस्से के पास पर्यावरणीय जागरूकता है और उनमें भी पर्यावरण का विचार मतलब सिर्फ नहाते समय पानी बचाना या दाँत साफ करते समय नल बंद रखना ही है। यह अच्छी बात है कि जिस वस्तु का वे इस्तेमाल कर रहे हैं उसकी फिजूलखर्ची को रोकने के बारे में वे जागरूक हैं पर ये कोई सम्पूर्ण पर्यावरणीय समाधान नहीं है। पर्यावरण सिर्फ जब एक चुनावी मुद्दा बनेगा और इस पर सरकारी नीतियाँ बनेंगीं तभी इसके समाधान के लिये जरूरी धन की व्यवस्था हो सकेगी।