सृष्टि की हर चीज़ के साथ पूरे मेल में कैसे जीएं?
यहाँ सदगुरु समझा रहे हैं कि कैसे हम अपने समय, अपनी ऊर्जा और अपने जीवन के अनुभवों का सबसे अच्छा उपयोग कर सकते हैं। अस्तित्व की एकता और एकात्मकता मात्र कोई विचार नहीं है। एक गणित का उदाहरण दे कर सदगुरु समझा रहे हैं कि कैसे उस उदाहरण में सबसे छोटी चीज़(आप की सांस) और सबसे लंबी चीज़(पृथ्वी की भूमध्य रेखा) की बनावट में विशिष्ट, स्पष्ट समानतायें हैं। वे आगे यह भी समझा रहे हैं कि कैसे, धीरे-धीरे, स्वाभाविक रूप से, आप अपनी सांस को अस्तित्व के तालमेल में ला सकते हैं तथा अपने जीवन की गुणवत्ता को और उसके अनुभव को विकसित कर सकते हैं।
समय गुज़रता जा रहा है
सदगुरु: शायद आप नहीं चाहेंगे कि मैं ऐसे शब्द कहूं, लेकिन अपने जीवन के हर क्षण में, आप अपनी मृत्यु के थोड़ा पास पहुँच रहे हैं। मैं आप को दीर्घायु होने का आशीर्वाद दूंगा पर मृत्यु तो हर मिनट आप के पास आ ही रही है। हमारे जीवन के जो दो सबसे महत्वपूर्ण आयाम हैं, वे हैं समय और ऊर्जा।अगर आप अपनी ऊर्जाओं को अच्छे से मैनेज करते हैं, तो आप की ऊर्जाओं के बढ़ जाने के कारण आप के अनुभव में समय भी ज्यादा अच्छा गुज़रेगा। जब आप के जीवन के अनुभव मधुर होते हैं तो वे जितने ज्यादा मधुर होते जायेंगे, उतनी ही ज्यादा तेजी से आपको समय बीतता मालूम पड़ेगा। आप सुबह उठेंगे और आपको पता चलने से पहले दिन पूरा भी हो जायेगा - इसका सीधा अर्थ ये है कि सब कुछ अच्छा है, आप बढ़िया स्थिति में हैं। अगर आप का समय जल्दी नहीं गुज़रता, भारी मालूम होता है तो इसका अर्थ ये है कि आप की स्थिति कष्टप्रद है, खराब है। आपका यह समझना महत्वपूर्ण है कि इस धरती पर, आज के समय में, एक मनुष्य के रूप में आप के शरीर के अंदर समय किस तरह चल रहा है, या आप समय का अनुभव किस प्रकार कर रहे हैं?
मनुष्य और पृथ्वी का तालमेल
आप के शरीर के कई आयाम इस धरती पर समय को तय करने के मूल भागों के साथ तालमेल में हैं। हमारे लिये समय का मूल माप तो पृथ्वी का सूर्य के चारों ओर घूमना ही है, जो एक वर्ष है। चंद्रमा पृथ्वी के चारों ओर घूम रहा है और इसका एक चक्र एक महीना है। लेकिन समय का सबसे मूल माप पृथ्वी के अपनी धुरी पर चक्कर लगाने से मिलता है। पृथ्वी के एक चक्कर को हम एक दिन कहते हैं।
पृथ्वी की भूमध्य रेखा 21600 नॉटिकल मील लंबी है। एक दिन में आप के द्वारा ली गयी साँसों की संख्या भी 21600 ही है। इसे अगर 1440 से भाग करें - जो हर दिन के मिनिटों की संख्या है - तो उत्तर मिलता है 15। इसका अर्थ ये है कि यदि आप हर मिनट लगभग 15 साँसें ले रहे हैं तो आप पृथ्वी के अपनी धुरी पर चक्कर लगाने के साथ पूरी तरह तालमेल में हैं। अगर आप के हृदय की धड़कनें प्रति मिनट 70 से 72 के बीच हैं तो आप का हृदय भी आप की सांस के साथ तालमेल में है और सांस पृथ्वी के चक्करों के साथ तालमेल में है। अपनी शारीरिक व्यवस्था में तालमेल लाने का ये एक सरल उपाय है। अगर आप ये करते हैं तो आप के शरीर की बाध्यतायें, शरीर की मजबूरियाँ छूट जायेंगी।
बाध्यता या जागरूकता, चयन आप का है
अधिकतर लोग अपना सारा जीवन बस शरीर की मजबूरियाँ को पूरा करने में ही गुज़ार देते हैं - क्या खाना है, कहाँ सोना है, किसके साथ सोना है....ये सब सिर्फ शरीर की बाध्यताओं के बारे में सोचने की बात है। शरीर की मजबूरियाँ हैं, आप उन्हें नकार नहीं सकते पर अपने जीवन के इस आयाम के लिये आप अपना कितना समय, अपनी कितनी ऊर्जा लगाना चाहते हैं ? मैं चाहता हूँ कि आप इसे खुले मन से देखें। मेरी रुचि आप के जीवन के किसी भी भाग को बदसूरत या बेकार कहने में नहीं है, पर समस्या ये है, कि अपने जीवन के हर क्षण में, आप मृत्यु के निकट जा रहे हैं।
जीवन एक सीमित समय है। इस कारण से इस प्रश्न पर विचार करना आवश्यक है, कि आप अपने जीवन का कितना समय, कितनी ऊर्जा अपनी शारीरिक और मनोवैज्ञानिक बाध्यताओं को पूरा करने में लगाते हैं? यदि आप प्रकृति की मूल शक्तियों के साथ तालमेल में हुए बिना, अपने शरीर और मन की बाध्यताओं को कम करने का प्रयास करेंगे तो ऐसा लगेगा कि आप हर चीज़ का त्याग कर रहे हैं, बलिदान कर रहे हैं। ये संन्यास नहीं है।
जीना जीवन के लिये, शरीर और मन के लिये नहीं
संन्यास का अर्थ ये है कि आप जागरूकता के साथ यह तय करते हैं कि आप अपनी शारीरिक बाध्यताओं में कम से कम समय लगायेंगे। ये बुद्धि के एक खास आयाम से होता है। ये त्याग नहीं है, न बलिदान है, न जीवन को छोड़ देना है। वास्तव में, संन्यास पूरी तरह से जीवन के पक्ष में है। क्योंकि आप उस जीवन के पक्ष में हैं, जो आप खुद हैं, न कि इस शरीर या मन के पक्ष में, जिन्हें आपने इकट्ठा किया है। आप कल संन्यासी नहीं बनने वाले और मैं आप को संन्यासी बनाना भी नहीं चाहता। महत्वपूर्ण बात है अपने जीवन को बेहतर बनाना। आप के चारों ओर जीवन के जो प्राकृतिक चक्र हैं, उनके साथ अपने जीवन को तालमेल में लाना महत्वपूर्ण है। और साथ ही अपने जीवन को पृथ्वी के तालमेल में लाना, जिसने जीवन को वैसा बनाया है जैसे वह है, यह महत्वपूर्ण है।
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हमने आप को यौगिक क्रियायें इसलिये सिखायी हैं कि आप समभाव की एक खास अवस्था में आ जायें, आप भीतरी तालमेल की एक खास अवस्था में रह सकें। यौगिक क्रियायें करने का लाभ ये होना चाहिये कि आप पानी, हवा, भोजन, अग्नि, गर्मजोशी, और निश्चित रूप से जीवित ऊर्जा जैसे सभी तत्वों के साथ आप पूरी तरह से तालमेल रख सकें। लेकिन आज की इस तथाकथित शिक्षण पद्धति के कारण लोगों पर एक पागलपन सवार हो गया है और वो है, "मुझे क्या मिलेगा"? लोगों को लगता है कि जीवन का अर्थ कुछ प्राप्त कर लेना ही है।
प्रतियोगिता या क्षमता
Competition versus Competence
जब आप अपने जीवन को बस एक सौदा, लेन देन का मामला बना लेते हैं तो फिर जीवन के साथ किसी सामंजस्यता (तालमेल) में रहने का प्रश्न नहीं उठता क्यों कि बचपन से ही, किंडरगार्टन के दिनों से आप को हमेशा प्रतियोगितात्मक होने (और सबसे आगे रहने) की ही बात सिखाई गयी है। प्रतियोगिता में होने का अर्थ ये है कि आप को अपनी क्षमता के बारे में कुछ नहीं पता। हो सकता है कि आप उड़ सकें पर आप खुश हैं कि आप दूसरे की अपेक्षा एक कदम आगे चल रहे हैं। यह कैसी त्रासदी है, कितनी दुःखद बात है! प्रतियोगिता में आप अपने अंदर तालमेल और समरसता के सारे भाव भूल जाते हैं क्योंकि इसमें आप के अपने बारे में कोई भी बात नहीं रह जाती, हर समय आप यही सोचते हैं कि आप की तुलना में कोई और क्या कर रहा है?
दूसरों की असफलता में यदि आप को मजा आ रहा है तो यह एक बीमारी है लेकिन किंडरगार्टन के समय से ही आप को ये विश्वास करने के लिए प्रशिक्षित किया गया है कि आपको हमेशा पहले नम्बर पर होना है। मुझे ये समझ में नहीं आता कि हर कोई क्यों सबसे छोटे नंबर पर रहना चाहता है। कम से कम आप आगे बढ़ कर शून्य हो सकते हैं। अगर आप सारा जीवन हमेशा सौदेबाजी, लेन देन में लगे रहें, अगर आप हर समय बस यही सोचते रहें कि मुझे क्या मिलेगा तो आप उन तत्वों के साथ कभी तालमेल में नहीं हो सकते जो आप को बनाते हैं।
लालच या सहज अवस्था
अगर आप तालमेल में नहीं हैं तो आप की क्षमता, आप की असाधारण क्षमता, आप की बुद्धि कभी भी पूर्ण रूप से व्यक्त नहीं होगी। ऐसा इसलिये होता है क्योंकि आप कभी सहज अवस्था में नहीं होते। सहज अवस्था में हुए बिना आप किसी भी चीज़ की पूर्ण अभिव्यक्ति को प्राप्त नहीं कर सकते। अपने आसपास की हर वस्तु के साथ तालमेल में होने के लिये, मनोवैज्ञानिक रूप से, आप को बस एक ही काम करना है। आप अपने मन में से बस एक विचार निकाल दें, बाकी की बकवास चलने दें। सिर्फ एक बात छोड़ दें, "मुझे क्या मिलेगा"? अगर आप ये एक चीज़ निकाल देंगे तो आप अपने आप को आसपास की हर चीज़ के साथ तालमेल में पायेंगे।
कभी-कभार आप ऐसा कर चुके हैं। आप को क्या मिलेगा, इसके बारे में आप को कोई चिंता नहीं थी, कोई विचार नहीं था। तो उन क्षणों में आप हर चीज़ के साथ तालमेल में थे। जिस क्षण आप को 'मुझे क्या मिलेगा' का विचार आता है, तुरंत आप की सौदेबाजी शुरू हो जाती है। जैसे ही सौदे शुरू होते हैं, हम बस किसी अन्य से बेहतर होने के प्रयास में लग जाते हैं। फिर हम अपने आप में नहीं रहते। जैसे ही मैं आप से बेहतर होने की इच्छा करता हूँ, मैं 'स्वयं' नहीं रह जाता। मैं आप से कुछ और ज्यादा बेवकूफियाँ करूँगा क्योंकि मैं प्रतियोगिता में आ गया हूँ। और ये सब क्यों हो रहा है, इसलिये कि आज की दुनिया में आप कुछ खास तरह की चीजें खा रहे हैं, कुछ खास प्रकार की हवा में सांस ले रहे हैं, कुछ खास प्रकार का पानी पी रहे हैं।
अपंग बनाने वाला ज़हर
हम अपने भोजन पर ज़हर छिड़क रहे हैं, पीने के पानी में ज़हर मिला रहे हैं और हमें लगता है कि हमने कोई अदभुत विज्ञान हासिल कर लिया है। ये विज्ञान नहीं है, ये बेवकूफी भरी बकवास है। दुर्भाग्य से हमने नासमझी से एक विज्ञान बना लिया है। सच बात तो ये है कि इस पृथ्वी पर, सभी प्रकार के जीवन के लिये, एक कोशिका वाले जीव से ले कर सबसे अधिक जटिल संरचना वाले जीव तक, जो कि आप हैं, मूल रूप से आधारभूत संरचना एक ही है। यदि किसी बैक्टेरिया के लिये कोई चीज़ विष है तो आप के लिये भी वो विष ही है। शायद उसकी मात्रा उतनी नहीं है जो आप को तुरंत मार दे लेकिन फिर भी वो ज़हर ही है। ये सारे ज़हर धीरे धीरे आप को अपंग बना रहे हैं। मैं सिर्फ शारीरिक स्वास्थ्य की बात नहीं कर रहा - हम चाहते हैं कि ये जीवन अपनी सम्पूर्ण संभावना में खिले।
आप चाहते हैं कि ये जीवन सभी चीजों से मुक्त हो। पर ये कैसे संभव है जब आप को ज़हर दिया गया है, दिया जा रहा है? अगर आप पूरी तरह से शुद्ध प्राकृतिक परिस्थितियों, वातावरण में रह रहे होते तो आप को इतनी जागरूकता के साथ प्रयत्न करने की, और इतनी यौगिक प्रक्रियायें करने की ज़रूरत नहीं पड़ती। लेकिन आजकल हम जिस तरह के वातावरण में रह रहे हैं, उसमें ये ज़रूरी हो जाता है, ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है कि आप जागरूक रहें और अपने चारों ओर हर चीज़ के साथ तालमेल में रहें।
साँस और हृदय की धड़कन को तालमेल में करना
हम तालमेल में कैसे हों? ये एक सरल सी चीज़ है जो आप कर सकते हैं। यदि आप हर समय ये नहीं कर सकते तो एक घंटे में एक बार या कम से कम दो घंटों में एक बार तो कर ही सकते हैं। आप चाहें कितने भी व्यस्त हों, एक मिनट तो निकाल ही सकते हैं। कहीं पर बैठ जाइए और सुनिश्चित कीजिये कि आप की साँस ठीक से चल रही है, एक मिनट में लगभग 15 साँसें। हर समय ये ऐसे ही रहे इसके लिये प्रयत्न कीजिये। आप धीरे धीरे देखेंगे कि आप की धड़कन भी हर चीज़ के साथ तालमेल में रहेगी। ये बहुत महत्वपूर्ण है ताकि आप एक सामान्य मनुष्य की तरह जी सकें।
अगर आप एक योगी होना चाहते हैं तो आप को अपनी साँसें (प्रति मिनट) कम करनी होंगी, लेकिन आप ऐसा बलपूर्वक नहीं कर सकते। आप को अपने फेफड़ों की शक्ति, योग्यता इस तरह बढ़ानी होगी, आप को अपने शरीर को आराम की ऐसी अवस्था में लाना होगा कि साँस अपने आप ही धीमी हो जाये, लेकिन स्वाभाविक रूप से। यौगिक कथनों में ये बात सुंदर ढंग से कही जाती है। साधारण रूप से ये सच है पर आप को इसे शाब्दिक रूप में नहीं लेना है। यदि आप की साँस प्रति मिनट 15 के बजाय 11 और 12 के बीच हो जाये तो आप को पृथ्वी के सभी पशु -पक्षियों, जीवों की भाषा आ जायेगी। अगर आप की साँस 9 तक आ जाये तो आप को धरती माँ की भाषा भी आ जायेगी।
संवेदनशील होने का अर्थ है समझदार होना
एक उदाहरण के तौर पर देखें तो मौसम विभाग क्या करता है? वे उस चीज़ को पढ़ने का प्रयत्न करते हैं जो धरती माँ किसी तरह से कह रही है। उस अर्थ में, और उससे भी गहरे अर्थ में, आप वो जान सकते हैं जो धरती माँ कह रही है, यदि आप की साँस स्वाभाविक रूप से प्रति मिनट 8 से 9 की गति से चलती है। अगर आप की साँस प्रति मिनट 6 से 7 हो जाये तो आप वो सब जान लेंगे जो जानने योग्य है - सिर्फ इसलिये कि वो सारी अनावश्यक जड़ता जो आप अपने शरीर और मन में भरते हैं, वह चली गयी है। हर चीज़ जैसी है, वैसी आप को एकदम स्पष्ट हो जाती है, क्योंकि स्नायु विज्ञान की दृष्टि से आप पृथ्वी पर सबसे ज्यादा विकसित जीव हैं।
एक मनुष्य के रूप में आप स्नायु विज्ञान की दृष्टि से सबसे अधिक विकसित स्तर पर हैं। इसका अर्थ ये है कि इस धरती पर मनुष्य सबसे अधिक संवेदनशील प्राणी है। संवेदनशील होने का अर्थ ये है कि आप हर उस चीज़ को महसूस कर सकते हैं जो आप के आसपास है। संवेदनशील होने का ये अर्थ नहीं है कि हर चीज़ आपको ठेस पहुंचाती है। संवेदनशील होने का मतलब, आप हर उस चीज़ को महसूस कर पाते हैं जो महसूस करने लायक है। अगर आप संवेदनशील हैं तो आप स्वाभाविक रूप से समझदारी से व्यवहार करेंगे। यदि आप अपने आसपास के हर व्यक्ति के प्रति संवेदनशील हैं तो आप हर किसी के साथ स्वाभाविक रूप से समझदारी भरा व्यवहार ही करेंगे। किसी को भी ये आवश्यकता नहीं होगी कि कोई आप को नैतिकता, आचार - विचार, सोच, आध्यात्मिकता या शास्त्र सिखाये।
यौगिक क्रियायें कैसे सहायक हैं?
अगर आप पृथ्वी की या उसके सभी प्राणियों की भाषा नहीं भी जानते तो कम से कम एक समझदार प्राणी तो बनिये। अगर आप ईशा योग कार्यक्रमों में सिखायी जाने वाली शक्ति चलन और सूर्य क्रिया रोज़ करते हैं तो ये स्वाभाविक रूप से होगा। कम से कम इतना करें। अपनी साँस को धरती की गति के साथ तालमेल में कर लें। अगर आप इतना भी कर लें तो आप एक बहुत अधिक संवेदनशील और समझदार मनुष्य बन जायेंगे। इस पृथ्वी पर बहुत सारे समझदार मनुष्य हों, तो न सिर्फ ये अच्छा होगा, बल्कि उनकी बहुत ज्यादा आवश्यकता है।
Editor’s Note: A version of this article was originally published in Forest Flower magazine, July 2019.